बहुयं मा य आलवे
बहुत अधिक न बोले
बहुत अधिक न बोले
विषलिप्त कॉंटे की तरह जानकर ब्रह्मचारी स्त्री का त्याग करे
वृद्ध होने पर व्यक्ति न हास-परिहास के योग्य रहता है, न क्रीड़ा के, न रति के और न शृंगार के ही
जैसे क्षीणफल वृक्ष को पक्षी छोड़ देते हैं, वैसे भोग क्षीणपुण्य पुरुष को छोड देते हैं
इच्छा आकाश के समान अनन्त होती है
इसलिए कि हम कुछ चाहते हैं|
इसका अर्थ?
अर्थ यही कि इच्छा स्वयं दुःख है! Continue reading “अनन्त इच्छा” »
अनन्त संसार में मूढ बहुशः लुप्त (नष्ट) होते हैं
प्राणियों से मैत्री करो
कृत कर्मों का (फल भोगे बिना) छुटकारा नहीं होता
वैरी वैर करता है और तब उसी में रस लेता है
बालप्रज्ञ (अज्ञ) दूसरे मनुष्यों को चिढ़ाता है