1 0 Archive | जैन स्तोत्र RSS feed for this section
post icon

मोह और दुःख

मोह और दुःख

लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतए

अनन्त संसार में मूढ बहुशः लुप्त (नष्ट) होते हैं

‘मूढ़’ का अर्थ है – मोहग्रस्त| जिनके मन में मोह भरा होता है, वे व्यक्ति इस अनन्त संसार में अनेक प्रकार से दुखी होते है| Continue reading “मोह और दुःख” »

Leave a Comment
post icon

मैत्री करो

मैत्री करो

मेत्तिं भूएसु कप्पए

प्राणियों से मैत्री करो

क्रोध, मान, माया और लोभ – ये चार कषाय आत्मा को उद्विग्न करते हैं – अशान्त बनाते हैं; इतना ही नहीं, बल्कि जिनके प्रति उनका प्रयोग किया जाता है, उन्हें भी उद्विग्न एवं अशान्त बना देते हैं| अपने कषाय के प्रदर्शन से उद्विग्न बने हुए दूसरे लोग हमारे वैरी बन जाते हैं और हम से वैर करते हैं – बदले में हम भी उनसे वैर करते है और इस प्रकार वैर प्रबल से प्रबलतर होता जाता है| Continue reading “मैत्री करो” »

Leave a Comment
post icon

अन्यथा मुक्ति नहीं

अन्यथा मुक्ति नहीं

कडाण कम्माण न अत्थि मोक्खो

कृत कर्मों का (फल भोगे बिना) छुटकारा नहीं होता

यदि दीपक की लौ पर कोई अपनी उँगली रखे तो क्या होगा ? उष्णता का अनुभव होगा और वह जलने लगेगी| जलन का अनुभव होगा और वह जलने लगेगी| जलन का अनुभव होने पर यदि उँगली दीपक की लौ से हटा भी ली जाये तो भी उसकी वेदना कुछ दिनों तक होती रहेगी| Continue reading “अन्यथा मुक्ति नहीं” »

Leave a Comment
post icon

वैर में रस न लें

वैर में रस न लें

वैराइं कुव्वइ वेरो,
तओ वेरेहिं रज्जति

वैरी वैर करता है और तब उसी में रस लेता है

खून का दाग खून से नहीं धुलता| वह पानी से ही धुल सकता है| उसी प्रकार वैर से कभी वैर नष्ट नहीं हो सकता| वह शान्ति से – क्षमा से – सहिष्णुता से – प्रेम के प्रयोग से ही नष्ट हो सकता है|परन्तु कुछ लोग ऐसे हैं, जो वैर को वैर से नष्ट करना चाहते हैं| ऐसे लोग आग को घासलेट से बुझाना चाहते हैं, पानी से नहीं| कैसी मूर्खता है? Continue reading “वैर में रस न लें” »

Leave a Comment
post icon

बालप्रज्ञ

बालप्रज्ञ

अं जणं खिंसइ बालपे

बालप्रज्ञ (अज्ञ) दूसरे मनुष्यों को चिढ़ाता है

स्वयं रोना आर्त्तध्यान है| दूसरों को रुलाना रौद्रध्यान है| संसार के अधिकांश जीवों का अधिकांश समय रोने और रुलाने में ही नष्ट होता है| Continue reading “बालप्रज्ञ” »

Leave a Comment
post icon

दुःख और तृष्णा

दुःख और तृष्णा

दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो,
मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा

जिसमें मोह नहीं होता, उसका दुःख नष्ट हो जाता है और जिसमें तृष्णा नहीं होती उसका मोह नष्ट हो जाता है

तृष्णा बड़े-बड़े धैर्यशालियों के भी छक्के छुड़ा देती है – आँख वालों को भी अन्धा बना देती है, अन्धेरी रात में आँखवालों को जिस प्रकार पास में पड़ी हुई वस्तु भी दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार तृष्णाग्रस्त व्यक्ति को अपने पास रही हुई सम्पत्ति भी दिखाई नहीं देती और वह अधिक से अधिक सम्पत्ति पाने की कोशिश में लगा रहता है – जीवन भर घानी के बैल की तरह परिश्रम करता रहता है| Continue reading “दुःख और तृष्णा” »

Leave a Comment
post icon

जीव विचार – गाथा 7

Sorry, this article is only available in English. Please, check back soon. Alternatively you can subscribe at the bottom of the page to recieve updates whenever we add a hindi version of this article.

Leave a Comment
post icon

न तृप्ति, न तृष्टि

न तृप्ति, न तृष्टि

देवावि सइंदगा न तित्तिं न तुट्ठिं उवलभन्ति

इन्द्रों सहित देव भी (विषयों से) न कभी तृप्त होते हैं, न सन्तुष्ट

पॉंच इन्द्रियॉं हैं और उनके अलग-अलग विषय हैं| जीवनभर जीव विषय-सामग्री को जुटाने के लिए दौड़-धूप करता रहता है| एक इन्द्रिय के विषय जुटाने पर दूसरी इन्द्रिय के और दूसरी के बाद तीसरी, चौथी और पॉंचवी इन्द्रिय के विषय क्रमशः जुटाने पड़ते हैं| Continue reading “न तृप्ति, न तृष्टि” »

Leave a Comment
post icon

कर्म का मूल हिंसा

कर्म का मूल हिंसा

कम्ममूलं च जं छणं

जो क्षण है, वह कर्म का मूल है

‘क्षण’ शब्द ‘क्षणवधे’ इस तनादि गण की उभयपदी सकर्मक धातु से बना है, जिसका अर्थ है – हिंसा| वैसे इस शब्द के और भी अनेक अर्थ हैं – निमेषक्रिया का चतुर्थ भाग, उत्सव, अवसर आदि; परन्तु इस सूक्ति में उस का मूल अर्थ ‘वध’ या ‘हिंसा’ ही ठीक लगता है| Continue reading “कर्म का मूल हिंसा” »

Leave a Comment
post icon

अज्ञ कौन है ?

अज्ञ कौन है ?

बालो पापेहिं मिज्जति

अज्ञ पापों पर घमण्ड करता है

कार्य दो तरह के होते हैं – भले और बुरे| भले कार्य पुण्य और बुरे कार्य पाप कहलाते हैं| Continue reading “अज्ञ कौन है ?” »

Leave a Comment
Page 4 of 27« First...23456...1020...Last »