अपने समान ही बाहर (दूसरों को) देख
आत्मवत् देखो
आयओ बहिया पास
ज्ञानियों ने पापों से – सब प्रकार के दुराचरणों से बचने का एक अत्यन्त सरल उपाय सुझाया है, जिसके द्वारा हम पुण्य-पाप का-अहिंसा-हिंसाका-धर्माधर्म का निर्णय भी कर सकते हैं और बुराइयों से बच भी सकते हैं| Continue reading “आत्मवत् देखो” »
कर्मरज की सफाई
विहुणाहि रयं पुरे कडं
पूर्व सञ्चित कर्म रूप रज को साफ करो
भक्तामर स्तोत्र – श्लोक 4
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशांककान्तान्
कस्ते क्षमः सुरगुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया ?
कल्पान्तकाल – पवनोद्धत – नक्रचक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ? ||4||
इसी जीवन में
इहलोगे सुचिण्णा कम्मा
इहलोगे सुहफल विवाग संजुत्ता भवन्ति
इहलोगे सुहफल विवाग संजुत्ता भवन्ति
इस लोक में किये हुए सत्कर्म इस लोक में सुखप्रद होते हैं
स्वाध्याय से लाभ
सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ
स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है
भक्तामर स्तोत्र – श्लोक 3
बुद्धया विनाऽपि विबुधार्चित-पादपीठ!
स्तोतुं समुद्यत-मति-र्विगतत्रपोहम् |
बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दुबिम्ब
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ? ||3||
दुःख परकृत नहीं होता
अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे
दुःख स्वकृत होता है, परकृत नहीं
कर्मों का बन्धन
जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं,
तमेव आगच्छति संपराए
तमेव आगच्छति संपराए
पहले जो जैसा कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है
क्षमा का जन्म
कोहविजएणं खंतिं जणयइ
क्रोधविजय क्षमा का जनक है
जीवन और रूप
जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपाय चंचलं
जीवन और रूप विद्युत् की गति के समान चंचल होते हैं