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मोह और दुःख

मोह और दुःख

लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतए

अनन्त संसार में मूढ बहुशः लुप्त (नष्ट) होते हैं

‘मूढ़’ का अर्थ है – मोहग्रस्त| जिनके मन में मोह भरा होता है, वे व्यक्ति इस अनन्त संसार में अनेक प्रकार से दुखी होते है| Continue reading “मोह और दुःख” »

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मैत्री करो

मैत्री करो

मेत्तिं भूएसु कप्पए

प्राणियों से मैत्री करो

क्रोध, मान, माया और लोभ – ये चार कषाय आत्मा को उद्विग्न करते हैं – अशान्त बनाते हैं; इतना ही नहीं, बल्कि जिनके प्रति उनका प्रयोग किया जाता है, उन्हें भी उद्विग्न एवं अशान्त बना देते हैं| अपने कषाय के प्रदर्शन से उद्विग्न बने हुए दूसरे लोग हमारे वैरी बन जाते हैं और हम से वैर करते हैं – बदले में हम भी उनसे वैर करते है और इस प्रकार वैर प्रबल से प्रबलतर होता जाता है| Continue reading “मैत्री करो” »

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अन्यथा मुक्ति नहीं

अन्यथा मुक्ति नहीं

कडाण कम्माण न अत्थि मोक्खो

कृत कर्मों का (फल भोगे बिना) छुटकारा नहीं होता

यदि दीपक की लौ पर कोई अपनी उँगली रखे तो क्या होगा ? उष्णता का अनुभव होगा और वह जलने लगेगी| जलन का अनुभव होगा और वह जलने लगेगी| जलन का अनुभव होने पर यदि उँगली दीपक की लौ से हटा भी ली जाये तो भी उसकी वेदना कुछ दिनों तक होती रहेगी| Continue reading “अन्यथा मुक्ति नहीं” »

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दुःख और तृष्णा

दुःख और तृष्णा

दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो,
मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा

जिसमें मोह नहीं होता, उसका दुःख नष्ट हो जाता है और जिसमें तृष्णा नहीं होती उसका मोह नष्ट हो जाता है

तृष्णा बड़े-बड़े धैर्यशालियों के भी छक्के छुड़ा देती है – आँख वालों को भी अन्धा बना देती है, अन्धेरी रात में आँखवालों को जिस प्रकार पास में पड़ी हुई वस्तु भी दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार तृष्णाग्रस्त व्यक्ति को अपने पास रही हुई सम्पत्ति भी दिखाई नहीं देती और वह अधिक से अधिक सम्पत्ति पाने की कोशिश में लगा रहता है – जीवन भर घानी के बैल की तरह परिश्रम करता रहता है| Continue reading “दुःख और तृष्णा” »

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श्रुतशील-तप

श्रुतशील तप

कसाया अग्गिणो वुत्ता,
सुयसीलतवो जलं

कषाय अग्नि है तो श्रुत, शील और तप को जल कहा गया है

क्रोध, मान, माया और लोभ – ये चार कषाय हैं| अग्नि की तरह ये आत्मा को जलाते रहते हैं – अशान्त और क्षुब्ध बनाते रहते हैं| इनसे कैसे बचा जाये ? इसका उपाय इस सूक्ति में बताया गया है| Continue reading “श्रुतशील-तप” »

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दुर्लभ श्रद्धा

दुर्लभ श्रद्धा

श्रद्धा परमदुल्लहा

श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है

धर्म पर श्रद्धा हो तो मनुष्य स्वार्थ का विचार किये बिना भी अपने कर्तव्य पर आरूढ़ हो सकता है| परन्तु यह श्रद्धा हो कैसे ? उसका आचार क्या हो ? Continue reading “दुर्लभ श्रद्धा” »

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प्रमाद मत कर

प्रमाद मत कर

समयं गोयम ! मा पमायए

हे गौतम! तू क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत कर

गौतमस्वामी को, जो महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य थे – प्रधान गणधर थे, यह प्रेरणा दी गई थी कि आत्मकल्याण के मार्ग में चलते हुए क्षण भर के लिए भी तू प्रमाद मत कर| Continue reading “प्रमाद मत कर” »

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अकिंचनता का अनुभव

अकिंचनता का अनुभव

तण्हा हया जस्स न होइ लोहो,
लोहो हओ जस्स न किंचणाइ

जिसमें लोभ नहीं होता, उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है और जो अकिंचन है, उसका लोभ नष्ट हो जाता है

‘किंचन’ का अर्थ है – कुछ| जो समझता है कि इस दुनिया में अपना कुछ नहीं हैं, जो सोचता है कि जन्म लेते समय हम अपने साथ कोई वस्तु नहीं लाये थे और मरते समय भी अपने साथ कुछ आने वाला नहीं है – सारा धन, खेत, मकान आदि यहीं छूट जाने वाले हैं – जो जानता है कि आत्मा के अतिरिक्त समस्त वस्तुएँ जड़ हैं – क्षणभंगुर हैं, वही ‘अकिंचन’ है| Continue reading “अकिंचनता का अनुभव” »

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अदत्तादान और लोभ

अदत्तादान और लोभ

लोभाविले आययइ अदत्तं

लोभ से कलुषित जीव अदत्तादान (चोरी) करता है

जो वस्तु दे दी जाती है, वह दत्त है और जो नहीं दी गयी, वह अदत्त है| सज्जन केवल दत्त वस्तु को ही ग्रहण करना उचित समझते हैं, अदत्त वस्तु को नहीं| Continue reading “अदत्तादान और लोभ” »

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असली और नकली

असली और नकली

राढामणी वेरुलियप्पगासे,
अमहग्घए होइ हु जाणएसु

वैडूर्यरत्न के समान चमकने वाले काच के टुकडे का, जानकारों के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं है

नकली मोती असली मोती से अधिक चमकीला होता है; परन्तु यह वह मूल्य में असली मोती की बराबरी कभी नहीं कर सकता | जानकार दोनों का अन्तर समझ ही लेते हैं| Continue reading “असली और नकली” »

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