भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ|
भोगी संसार में भटकता है और अभोगी मुक्त हो जाता है
भोगी संसार में भटकता है और अभोगी मुक्त हो जाता है
धीर पुरुष क्रिया में रुचिवाला होता है
जिसके आगे-पीछे न हो, उसके बीच में भी कैसे होगा?
आत्महितैषी साधक अपने को विनय में स्थिर करे
हे पुरुष ! तू स्वयं ही अपना मित्र है| अन्य बाहर के मित्रों की चाह क्यों रखता है ?
सांसारिक जीव क्रमशः शुद्ध होते हुए मनुष्यभव पाते हैं
साधक को कमलपत्र की तरह निर्लेप और आकाश की तरह निरवलम्ब रहना चाहिये
जो सुप्त हैं, वे अमुनि है मुनि तो सदा जागते रहते हैं
जिसकी दृष्टि सम्यक् है, वह सदा अमूढ़ होता है
विग्रह बढ़ानेवाली बात नहीं करनी चाहिये