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सदाचार का मूल

सदाचार का मूल

नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न होंति चरणगुणा

सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान प्राप्त नहीं होता और ज्ञान के अभाव में चारित्र-गुण प्राप्त नहीं होते

दृष्टि यदि सम्यक् न हो तो मनुष्य सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता; क्यों कि जबतक दृष्टि सम्यक् परक नहीं होगी, सम्यक् की खोज नहीं की जा सकेगी और इसके लिए आवश्यक होगा कि दृष्टि स्वयं भी सम्यक् हो| सम्यग्ज्ञान से पहले सम्यग्दर्शन होना चाहिये| Continue reading “सदाचार का मूल” »

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दुःखप्रदायकता

दुःखप्रदायकता

सव्वे कामा दुहावहा

सभी काम दुःखप्रद होते हैं

यहॉं ‘काम’ शब्द का अर्थ कार्य नहीं हैं, तीसरा पुरुषार्थ है| हिन्दी में काम शब्द दोनों अर्थों में प्रचलित है| इस सूक्ति में कामनाओं के त्याग का परामर्श दिया गया है और इसका कारण बताया है – उनकी दुःखदायकता| Continue reading “दुःखप्रदायकता” »

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साधुओं की प्रसन्नता

साधुओं की प्रसन्नता

महप्पसाया इसिणो हवंति

ऋषि सदा प्रसन्न रहते हैं

जीवन में परिस्थियॉं कभी अनुकूल रहती हैं और कभी प्रतिकूल | प्रतिकूल परिस्थियों में जो धीरज खो देते हैं अर्थात् जिनका मानसिक सन्तुलन नष्ट हो जाता है, वे प्रसन्न नहीं रह सकते| जो अपने मन को क्षणिक सुख देनेवाली विषय-सामग्री एकत्र करने में लगा देते हैं, वे भी सदा अशान्त रहते हैं| Continue reading “साधुओं की प्रसन्नता” »

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अपराजेय शत्रु

अपराजेय शत्रु

एगप्पा अजिए सत्तू

एक असंयत आत्मा ही अजित शत्रु है

अपना शत्रु कौन है ?

जिसे हम अपना शत्रु समझते हैं| Continue reading “अपराजेय शत्रु” »

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कर्मरज की सफाई

कर्मरज की सफाई

विहुणाहि रयं पुरे कडं

पूर्व सञ्चित कर्म रूप रज को साफ करो

कुत्ता भी जब किसी स्थान पर बैठता है, तब उस स्थान की सफाई कर देता है| यह प्रवृत्ति बतलाती है कि स्वच्छता प्राणियों को प्रिय है|यदि कुछ दिनों तक कपड़े न धोये जायें; तो वे कितने गन्दे हो जाते हैं ? कितने बुरे लगने लगते हैं ? Continue reading “कर्मरज की सफाई” »

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स्वाध्याय से लाभ

स्वाध्याय से लाभ

सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ

स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है

स्वाध्याय का साधारण अर्थ है – वीतरागप्रणीत शास्त्रों का अध्ययन करना| इससे उन कर्मों का क्षय होता है, जो ज्ञान पर आवरण डाले हुए हैं| ज्यों-ज्यों हम स्वाध्याय करते जायेंगे, त्यों-त्यों ज्ञानीवरणीय कर्म क्षीण होते जायेंगे और धीरे-धीरे हमें पूर्ण ज्ञान या सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जायेगा| Continue reading “स्वाध्याय से लाभ” »

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क्षमा का जन्म

क्षमा का जन्म

कोहविजएणं खंतिं जणयइ

क्रोधविजय क्षमा का जनक है

अपराधी चाहता है कि यदि उसे क्षमा कर दिया जाये तो कितना अच्छा रहे| यदि पापी अपने पापों के लिए लज्जित हो रहा हो – अपने किये हुए अपराधों के लिए उसके हृदय में वास्तविक पश्‍चात्ताप हो रहा हो; तो उसे अवश्य क्षमा कर देना चाहिये| Continue reading “क्षमा का जन्म” »

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जीवन और रूप

जीवन और रूप

जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपाय चंचलं

जीवन और रूप विद्युत् की गति के समान चंचल होते हैं

जीवन क्षणभंगुर है | पता नहीं जो सॉंस छोड़ी जा रही है, वह लौट कर भी आयेगी या नहीं| यह जीवन बिजली की चंचल गति के समान चंचल है| क्षण-भर के लिए अपनी चमक दिखा कर बिजली जिस प्रकार लुप्त हो जाती है; उसी प्रकार जीवन भी कुछ वर्षों तक अपनी झलक दिखाकर समाप्त हो जाता है| इसलिए जब तक जीवन विद्यमान है; अच्छे कार्यों द्वारा उसका सदुपयोग कर लेना चाहिये| Continue reading “जीवन और रूप” »

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वाणी कैसी हो?

वाणी कैसी हो?

भासियव्वं हियं सच्चं

हितकर सच्ची बात कहनी चाहिये

हम जो कुछ बोलें, उससे अपना या दूसरों का भला होना चाहिये| यदि ऐसा नहीं होता तो समझना चाहिये कि हमारी वाणी व्यर्थ गयी| Continue reading “वाणी कैसी हो?” »

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वेदों का अध्ययन

वेदों का अध्ययन

वेया अहीया न भवन्ति ताणं

अध्ययन किये गये वेद रक्षा नहीं कर सकते

अमुक व्यक्ति वेदों का पारायण करता है – अध्ययन करता है; इसलिए आदरणीय है – पूज्य है – पवित्र है – ऐसा मानना भ्रमपूर्ण है| क्यों? ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आदरणीयता, पूज्यता एवं पवित्रता का सम्बन्ध सच्चरित्रता से है, त्याग से है, परोपकार से है, सदाचार से है; वेदों के अध्ययन से नहीं| Continue reading “वेदों का अध्ययन” »

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