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इसी जीवन में

इसी जीवन में

इहलोगे सुचिण्णा कम्मा
इहलोगे सुहफल विवाग संजुत्ता भवन्ति

इस लोक में किये हुए सत्कर्म इस लोक में सुखप्रद होते हैं

इस लोक में अर्थात् इसी भव में – इसी जीवन में किये हुए अच्छे कार्यों का सुफल इसी लोक में मिल जाता है| Continue reading “इसी जीवन में” »

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स्वाध्याय से लाभ

स्वाध्याय से लाभ

सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ

स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है

स्वाध्याय का साधारण अर्थ है – वीतरागप्रणीत शास्त्रों का अध्ययन करना| इससे उन कर्मों का क्षय होता है, जो ज्ञान पर आवरण डाले हुए हैं| ज्यों-ज्यों हम स्वाध्याय करते जायेंगे, त्यों-त्यों ज्ञानीवरणीय कर्म क्षीण होते जायेंगे और धीरे-धीरे हमें पूर्ण ज्ञान या सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जायेगा| Continue reading “स्वाध्याय से लाभ” »

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भक्तामर स्तोत्र – श्लोक 3

बुद्धया विनाऽपि विबुधार्चित-पादपीठ!
स्तोतुं समुद्यत-मति-र्विगतत्रपोहम् |
बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दुबिम्ब
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ? ||3||

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दुःख परकृत नहीं होता

दुःख परकृत नहीं होता

अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे

दुःख स्वकृत होता है, परकृत नहीं

सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का फल भोगते हैं| कोई अन्य प्राणी किसी को सुख-दुःख नहीं दे सकता| यह सिद्धान्त हमें अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी बनाता है| Continue reading “दुःख परकृत नहीं होता” »

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कर्मों का बन्धन

कर्मों का बन्धन

जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं,
तमेव आगच्छति संपराए

पहले जो जैसा कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है

लकड़ी के गेंद को यदि पानी में डाल दिया जाये तो वह डूबेगी नहीं, तैरेगी| आत्मा उससे अधिक हल्की है – बहुत हल्की; फिर भी वह संसार में डूबी हुई है| ऐसा क्यों ? Continue reading “कर्मों का बन्धन” »

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क्षमा का जन्म

क्षमा का जन्म

कोहविजएणं खंतिं जणयइ

क्रोधविजय क्षमा का जनक है

अपराधी चाहता है कि यदि उसे क्षमा कर दिया जाये तो कितना अच्छा रहे| यदि पापी अपने पापों के लिए लज्जित हो रहा हो – अपने किये हुए अपराधों के लिए उसके हृदय में वास्तविक पश्‍चात्ताप हो रहा हो; तो उसे अवश्य क्षमा कर देना चाहिये| Continue reading “क्षमा का जन्म” »

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जीवन और रूप

जीवन और रूप

जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपाय चंचलं

जीवन और रूप विद्युत् की गति के समान चंचल होते हैं

जीवन क्षणभंगुर है | पता नहीं जो सॉंस छोड़ी जा रही है, वह लौट कर भी आयेगी या नहीं| यह जीवन बिजली की चंचल गति के समान चंचल है| क्षण-भर के लिए अपनी चमक दिखा कर बिजली जिस प्रकार लुप्त हो जाती है; उसी प्रकार जीवन भी कुछ वर्षों तक अपनी झलक दिखाकर समाप्त हो जाता है| इसलिए जब तक जीवन विद्यमान है; अच्छे कार्यों द्वारा उसका सदुपयोग कर लेना चाहिये| Continue reading “जीवन और रूप” »

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भूल दुहराऊँगा नहीं !

भूल दुहराऊँगा नहीं !

तं परिण्णाय मेहावी, इयाणिं णो,
जमहं पुव्वमकासो पमाएणं

मेधावी साधक को आत्मपरिज्ञान के द्वारा यह निश्‍चय करना चाहिये कि मैंने पूर्वजीवन में प्रमादवश जो कुछ भूल की है, उसे अब कभी नहीं करूँगा

कहते हैं, व्यक्ति ठोकरों से ही सीखता है| प्रत्येक ठोकर उसे कुछ-न-कुछ शिक्षा दे जाती है – सिखा जाती है; परन्तु उस शिक्षा को ग्रहण करना या न करना व्यक्ति की अपनी इच्छा पर निर्भर है| जो मेधासम्प है – बुद्धिमान है, उसीमें ऐसी इच्छा की उत्पत्ति और निवास सम्भव है| Continue reading “भूल दुहराऊँगा नहीं !” »

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सरलता और सन्तोष

सरलता और सन्तोष

माया मज्जवभावेणं,
लोहं सन्तोसओ जिणे

माया को ऋजुता से और लोभ को सन्तोष से जीतें

सरल और कुटिल परस्पर विलोम शब्द है| सरलता सम्प व्यक्ति पर लोग अखण्ड विश्‍वास करते हैं और कुटिलता सम्प व्यक्ति पर सर्वथा अविश्‍वास | जहॉं विश्‍वास है, वहीं प्रेम है और जहॉं प्रेम है, वहीं सुख है| Continue reading “सरलता और सन्तोष” »

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अज्ञ अभिमान करते हैं

अज्ञ अभिमान करते हैं

बालजणो पगभई

अज्ञ अभिमान करते हैं

विद्या से विनय पैदा होना चाहिये| बिना विनय के विद्या में वृद्धि नहीं होगी और प्राप्त विद्या भी धीरे-धीरे क्षीण होने लगेगी| विनय से ही विद्या की शोभा होती है| अतः अपनी विद्वत्ता की शोभा के लिए भी इस विनय नामक गुण को अपनाने की आवश्यकता है| Continue reading “अज्ञ अभिमान करते हैं” »

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