कोहो पीइं पणासेइ
क्रोध प्रीति का नाशक है
क्रोध प्रीति का नाशक है
अपने पर नियन्त्रण रखनेवाला ही इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है
समझो! क्यों नहीं समझते मरने पर संबोध निश्चित रूप से दुर्लभ है
सर्वथा काया को मोह छोड़ता हूँ – मेरी देह पर कोई परीषह जैसे है ही नहीं
हे राजन्! बुढ़ापा मनुष्य के सौन्दर्य को नष्ट कर देता है
विचित्र (लच्छेदार) भाषाएँ भी (दुराचारी की दुर्गति से) रक्षा नहीं कर सकतीं, फिर विद्यानुशासन (पाण्डित्य) की तो बात ही क्या?
थोड़ा मिलने पर झुँझलाएँ नहीं
साधक को कोई यदि दुर्वचन कहे; तो भी वह उस पर क्रोध न करे
सम्यग्दर्शी पाप नहीं करता