अस्स दुक्खं ओ न परियाइयति
कोई किसी दूसरे के दुःख को बाँट नहीं सकता
कोई किसी दूसरे के दुःख को बाँट नहीं सकता
बुद्धिमान को कभी उपहास नहीं करना चाहिये
धर्म द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और उत्तम शरण है
प्रिय करनेवाला और प्रिय बोलनेवाला अपनी शिक्षा प्राप्त करने में समर्थ होता है
तू स्वयं अनाथ है, तो फिर तू दूसरे का नाथ कैसे हो सकता है ?
धर्मधुरा खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है? वहॉं तो सदाचार ही आवश्यक है
इस संसार में जो निःस्पृह है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है
अज्ञ जीव विवश होकर अन्धकाराच्छदन
आसुरी गति को प्राप्त होते हैं
थोड़े में कही जानेवाली बात को व्यर्थ ही लम्बी न करें
सोचकर बोलें