1 0 Tag Archives: जैन आगम
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खून का दाग खून से नहीं धुलता

खून का दाग खून से नहीं धुलता

रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव
पक्खालिज्जमाणस्स णत्थि सोही

रक्त-सना वस्त्र रक्त से ही धोया जाये तो वह शुद्ध नहीं होता

आग को आग से नहीं बुझाया जा सकता| कुत्ता यदि हमें काट खाये; तो इसका उपचार यह नहीं हो सकता कि हम भी कुत्ते को काट खायें| इसी प्रकार गाली का बदला गाली से या मारपीट का बदला मारपीट से नहीं चुकाया जा सकता| Continue reading “खून का दाग खून से नहीं धुलता” »

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धर्माचार्य को वन्दन

धर्माचार्य को वन्दन

जत्थेव धम्मायरियं पासेज्जा,
तत्थेव वंदिज्जा नमंसिज्जा

जहॉं कहीं भी धर्माचार्य दिखाई दें, वहीं उन्हे वन्दना नमस्कार करना चाहिये

आचारकी प्रेरणा देने वाले आचार्य हैं और यह प्रेरणा जिन्हें प्राप्त होती है, उनके द्वारा वे प्रणम्य हैं| Continue reading “धर्माचार्य को वन्दन” »

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ममता का बन्धन

ममता का बन्धन

ममत्तं छिंदए ताए, महानागोव्व कंचुयं

आत्मसाधक ममत्व के बन्धन को तोड़ फेंके; जैसे महानाग कञ्चुक को उतार देता है

सॉंपों के शरीर पर एक झिल्लीदार पतला चमड़ा होता है, जो हर साल गिर जाता है| उसे संस्कृत में कंचुक और हिन्दी में केंचुली कहते हैं| अजगर जिस प्रकार वर्षभर तक एक केंचुली की खोज में रहकर भी उसके प्रति आसक्ति नहीं रखता और ज्यों ही वर्ष समाप्त होता है, वह तत्काल अपनी केंचुली छोड़ कर अन्यत्र चला जाता है| Continue reading “ममता का बन्धन” »

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चक्षु चाहिये

चक्षु चाहिये

सूरोदये पासति चक्खुणेव

सूर्य के उदय होने पर भी आँख से ही देखा जा सकता है

दर्पण सामने हो; फिर भी अन्धे को उसमें अपनी सूरत दिखाई नहीं देती| सूरत देखने के लिए अपनी आँख चाहिये| Continue reading “चक्षु चाहिये” »

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कामासक्ति को छोड़िये

कामासक्ति को छोड़िये

कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं

निश्‍चयपूर्वक कहा जा सकता है कि दुःख कामासक्ति से उत्प होता है

दुःख का जन्म कहॉं होता है ? कामना के क्षेत्र में; इच्छा की भूमि पर| जहॉं कामनाएँ हैं, विविध विषयों को प्राप्त करने की लालसाएँ हैं; वहॉं शान्ति का अस्तित्व कैसे रह सकता है ? Continue reading “कामासक्ति को छोड़िये” »

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भवतृष्णा का त्याग

भवतृष्णा का त्याग

भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया

संसार की तृष्णा भयंकर फल देनेवाली एक भयंकर लता है

भवतण्हा तृष्णा अर्थात् संसार के प्रति आसक्ति एक लता है – ऐसी भयंकर लता, जिसमें भयंकर फल उत्प होते हैं| Continue reading “भवतृष्णा का त्याग” »

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कृत – अकृत

कृत   अकृत

कडं कडेत्ति भासेज्जा, अकडं नो कडेत्ति य

किये हुए को कृत और न किये हुए को अकृत कहना चाहिये

इस सूक्ति में यथार्थ वचन का स्वरूप समझाया गया है| गुरु के सन्मुख विनयभाव का सूचन करते हुए आपने जो काम किया हुआ है, वह ‘कृत’ है और जो काम नहीं किया हुआ है, वह अकृत है| जो कृत है उसे कृत कहा जाये और जो अकृत है, उसे अकृत| Continue reading “कृत – अकृत” »

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कल्याणकारिणी

कल्याणकारिणी

अहिंसा तसथावरसव्वभूयखेमंकरी

अहिंसा त्रस एवं स्थावर समस्त भूतों (प्राणियों) का कल्याण करनेवाली है

जीव दो प्रकार के होते हैं – सिद्ध, जो कर्मों से सर्वथा रहित हैं और संसारी, जिनसे कर्म चिपके हुए हैं| Continue reading “कल्याणकारिणी” »

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वाणी का आदर्श

वाणी का आदर्श

सच्चं च हियं च मियं च गाहणं च

सत्य, हित, मित और ग्राह्य वचन बोलें

जो मनुष्य गूँगे नहीं है, उन सबको व्यवहार के लिए, दूसरों को अपने मन की बात समझाने के लिए, दूसरों के मन की बात जानने के लिए कुछ-न-कुछ प्रतिदिन बोलना ही पड़ता है| Continue reading “वाणी का आदर्श” »

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अनिदानता

अनिदानता

सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था

भगवान ने सर्वत्र अनिदानता (निष्कामता) की प्रशंसा की है

कार्य की शुद्धि के लिए निःस्वार्थता अत्यन्त आवश्यक है| स्वार्थ या फल की कामना ही कार्य को कलुषित करती है| फल तो मिलेगा ही; परन्तु हमें फल की आशा रख कर कार्य नहीं करना चाहिये| Continue reading “अनिदानता” »

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