कानों को सुख देने वाले (मधुर) शब्दों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिये
प्रशंसा से मोह
आत्मवत् देखो
अपने समान ही बाहर (दूसरों को) देख
कर्मरज की सफाई
पूर्व सञ्चित कर्म रूप रज को साफ करो
भक्तामर स्तोत्र – श्लोक 4
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशांककान्तान्
कस्ते क्षमः सुरगुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया ?
कल्पान्तकाल – पवनोद्धत – नक्रचक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ? ||4||
Wallpaper #1
मनडुं किमही न बाजे
श्री कुंथुनाथ जिन स्तवन
कुंथुजिन! मनडुं किमही न बाजे,
हो कुंथुजिन! मनडुं किमही न बाजे;
जिम जिम जतन करीने राखुं,
तिम तिम अलगुं भाजे हो
इसी जीवन में
इहलोगे सुहफल विवाग संजुत्ता भवन्ति
इस लोक में किये हुए सत्कर्म इस लोक में सुखप्रद होते हैं
Description of Vaitadhya
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स्वाध्याय से लाभ
स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है
तुम्हारे हाथ से डूब जाऊं तो भी उबर जाऊँ
अब तु ले चलो उस पार| अपने से तो यह न हो सकेगा| यह भवसागर बड़ा है| दूसरा किनारा दिखाई भी नहीं पड़ता है| Continue reading “तुम्हारे हाथ से डूब जाऊं तो भी उबर जाऊँ” »