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मूलडो थोडो भाई व्याजडो घणोरे

Listen to मूलडो थोडो भाई व्याजडो घणोरे

रातडी रमीने अहियांथी आविया ॥ए देशी॥
मूलडो थोडो भाई व्याजडो घणोरे,
केम करी दीधोरे जाय?
तलपद पूंजी में आपी सघलीरे,
तोहे व्याज पूरुं नवि थाय

…मूलडो.१

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भवतृष्णा का त्याग

भवतृष्णा का त्याग

भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया

संसार की तृष्णा भयंकर फल देनेवाली एक भयंकर लता है

भवतण्हा तृष्णा अर्थात् संसार के प्रति आसक्ति एक लता है – ऐसी भयंकर लता, जिसमें भयंकर फल उत्प होते हैं| Continue reading “भवतृष्णा का त्याग” »

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कृत – अकृत

कृत   अकृत

कडं कडेत्ति भासेज्जा, अकडं नो कडेत्ति य

किये हुए को कृत और न किये हुए को अकृत कहना चाहिये

इस सूक्ति में यथार्थ वचन का स्वरूप समझाया गया है| गुरु के सन्मुख विनयभाव का सूचन करते हुए आपने जो काम किया हुआ है, वह ‘कृत’ है और जो काम नहीं किया हुआ है, वह अकृत है| जो कृत है उसे कृत कहा जाये और जो अकृत है, उसे अकृत| Continue reading “कृत – अकृत” »

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कल्याणकारिणी

कल्याणकारिणी

अहिंसा तसथावरसव्वभूयखेमंकरी

अहिंसा त्रस एवं स्थावर समस्त भूतों (प्राणियों) का कल्याण करनेवाली है

जीव दो प्रकार के होते हैं – सिद्ध, जो कर्मों से सर्वथा रहित हैं और संसारी, जिनसे कर्म चिपके हुए हैं| Continue reading “कल्याणकारिणी” »

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Quote #15

If you want to fly, you have to let go of the things that weigh you down.
Unknown
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वाणी का आदर्श

वाणी का आदर्श

सच्चं च हियं च मियं च गाहणं च

सत्य, हित, मित और ग्राह्य वचन बोलें

जो मनुष्य गूँगे नहीं है, उन सबको व्यवहार के लिए, दूसरों को अपने मन की बात समझाने के लिए, दूसरों के मन की बात जानने के लिए कुछ-न-कुछ प्रतिदिन बोलना ही पड़ता है| Continue reading “वाणी का आदर्श” »

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मेरा सिद्धान्त

मेरा सिद्धान्त

एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसणसंजुओ
सुख धर्म से मिलता है|

दुःख पाप से मिलता है| Continue reading “मेरा सिद्धान्त” »

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अवधू! क्या मागुं गुनहीना

Listen to अवधू! क्या मागुं गुनहीना

अवधू! क्या मागुं गुनहीना?
वे गुनगनन प्रवीना,
अवधू! क्या मागुं गुनहीना?
गाय न जानुं बजाय न जानुं न जानुं सुरभेवा,
रीझ न जानुं रीझाय न जानुं न जानुं पदसेवा.

…क्या.१

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अनिदानता

अनिदानता

सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था

भगवान ने सर्वत्र अनिदानता (निष्कामता) की प्रशंसा की है

कार्य की शुद्धि के लिए निःस्वार्थता अत्यन्त आवश्यक है| स्वार्थ या फल की कामना ही कार्य को कलुषित करती है| फल तो मिलेगा ही; परन्तु हमें फल की आशा रख कर कार्य नहीं करना चाहिये| Continue reading “अनिदानता” »

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अन्धी पीसे, कुत्ता खाये

अन्धी पीसे, कुत्ता खाये

ए हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहिं किच्चति

यथावसर संचित धन को तो अन्य व्यक्ति उड़ा लेते हैं और परिग्रही को अपने पापकर्मों का दुष्फल स्वयं भोगना पड़ता है

व्यक्ति जब चोरी करता है अथवा किसी के धन का अपहरण करता है, तब उसके अन्तःकरण से एक आवाज़ निकलती है – ‘‘मत कर, ऐसा मत कर| बुरा काम है यह|’’ – परन्तु उस आवाज को अनसुनी करके स्वार्थ और प्रलोभन से प्रेरित हो कर व्यक्ति अपना कार्य कर ही डालता है| Continue reading “अन्धी पीसे, कुत्ता खाये” »

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