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श्री अनाथि मुनि

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सुखद और दुःखद

सुखद और दुःखद

खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा

विषयभोग क्षणमात्र सुख देते हैं, किंतु बहुकाल पर्यन्त दुःख देते हैं

दिन के बाद रात और रात के बाद दिन अथवा अँधेरे के बाद उजाला व उजाले के बाद अँधेरा क्रम से आता रहता है, उसी प्रकार सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख का आगमन जीवन में होता रहता है – अनुकूल परिस्थितियॉं पा कर कभी हम हँसते हैं तो प्रतिकूल परिस्थितियॉं पा कर रोते भी हैं| Continue reading “सुखद और दुःखद” »

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कर्मों से कष्ट

कर्मों से कष्ट

सकम्मुणा विप्परियासुवेइ

अपने किये कर्मों से ही व्यक्ति कष्ट पाता है

दुनिया में विषमता है| कोई जन्म ले रहा है, कोई जन्म दे रहा है – कोई जी रहा है, कोई मर रहा है – कोई धन पा रहा है, कोई खो रहा है – कोई जाग रहा है, कोई सो रहा है – कोई हँस रहा है, कोई रो रहा है – कोई सुखी है, कोई दुःखी| Continue reading “कर्मों से कष्ट” »

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भगवती अहिंसा

भगवती अहिंसा

भगवती अहिंसा…. भीयाणं पि व सरणं

भगवती अहिंसा भीतों (डरे हुओं) के लिए शरण के समान है

भीत अर्थात् संकटग्रस्त डरा हुआ व्यक्ति अपनी सुरक्षा के लिए किसी समर्थ व्यक्ति की शरण ढूँढता है| शरण या आश्रय मिल जाने पर शरणार्थी सन्तुष्ट हो जाता है – निर्भय हो जाता है; वैसे ही भगवती अहिंसा का आश्रय लेने पर भी व्यक्ति सन्तुष्ट एवं निर्भय हो जाता है| Continue reading “भगवती अहिंसा” »

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तीर्थप्रभावना – साल का दसवां कर्तव्य

तीर्थप्रभावना   साल का दसवां कर्तव्य
श्रावक की क्रिया, श्रावक के प्रत्येक अनुष्ठान, श्रावक का वेश, श्रावक की भाषा, श्रावक के आचार, दुनिया के साथ श्रावक का व्यवहार इत्यादि ऐसे होने चाहिए कि जिसे देखकर दूसरों को उस श्रावक पर और उसके द्वारा जैन धर्म प्रति अहोभाव हो जाए| नौकर को भी कौटुंबिक पुरुष समझना चाहिए और उसे भी सभी आराधना में जोडना चाहिए और धर्म करने के लिए अनुकूलता कर देनी चाहिए| इसतरह अजैन को जैन बनाएँ और जैनको यथार्थ जैन बनाएँ| Continue reading “तीर्थप्रभावना – साल का दसवां कर्तव्य” »

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Stuti

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तारा मुखडा उपर जाउं वारी

Listen to तारा मुखडा उपर जाउं वारी

(राग : ओली चंदनबाळाने बारणे)
भाव : चंदनबाळा नी प्रभुवीर प्रत्येनी शुभ भावना

बतारा मुखडा उपर जाउं वारी रे,
वीर मारां मन मान्या, तारा दर्शननी बलिहारी रे वीर,
मुठी बाकुळा माटे आव्या रे; मने हेत धरी बोलाव्या रे.

…वीर.१

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जीवन की क्षणभुंगरता

जीवन की क्षणभुंगरता

वओ अच्चेति जोव्वणं च

आयु बीत रही है और युवावस्था भी

ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों-त्यों हमारी आयु भी क्रमशः व्यतीत होती जाती है| जब से हमने जन्म लिया है – आँखें खोली हैं, दुनिया देखी है; तभी से हमारी अवस्था एक – एक क्षण घटती जा रही है| लोग समझते हैं कि हम बड़े हो रहे हैं; परन्तु वास्तविकता यह है कि वे छोटे हो रहे हैं| जितने दिन-रात बीतते जाते हैं; उतने निर्धारित आयु में से घटते जाते हैं| इस प्रकार आयुष्य प्रतिक्षण क्षीण से क्षीणतर होता जाता है| Continue reading “जीवन की क्षणभुंगरता” »

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जीने की विधि

जीने की विधि

पक्षं कञ्चन नाश्रयेत्
या तो अकेले ही जीने की कला सीख लेनी चाहिए या फिर सहजीवन – समूहजीवन जीने का तरीका समझ लेना चाहिए| Continue reading “जीने की विधि” »

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