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स्वपर-कल्याण में समर्थ

स्वपर कल्याण में समर्थ

अलमप्पणो होंति अलं परेसिं

ज्ञानी स्व-परकल्याण करने में समर्थ होते हैं

पत्थर की नाव स्वयं भी डूबती है और बैठनेवाले यात्रियों को भी डुबो देती है; किंतु जो नाव काष्ट की बनी होती है, वह स्वयं भी तैरती है और दूसरों को भी तिराती है| ज्ञानियों और अज्ञानियों में यही अन्तर है| अज्ञानी स्वयं तो संसार में भटकते ही हैं, साथ ही अपने आश्रितों को भी कुमार्ग बता कर भटकाते रहते हैं, किन्तु ज्ञानी न स्वयं भटकते हैं और न दूसरों को ही भटकाते हैं| Continue reading “स्वपर-कल्याण में समर्थ” »

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संचित कर्मों का क्षय

संचित कर्मों का क्षय

तुट्टन्ति पावकम्माणि
नवं कम्ममकुव्वओ

जो नये कर्मों का बन्धन नहीं करता, उसके पूर्वसञ्चित पापकर्म भी नष्ट हो जाते हैं

हम जितना कुछ खाते हैं, वह सब मलद्वारसे ज्यों का त्यों नहीं निकल जाता| कुछ विष्टा के रूप में बाहर निकलता है और कुछ आँतों मे जमा रहता है- आँतों से चिपका रहता है और पड़ा-पड़ा सड़कर अनेक रोग पैदा करता है| आरोग्य के सन्देशवाहक कहते हैं कि हमें सप्ताह में एक उपवास करके पेट को विश्राम देना चाहिये| नया भोजन पेट में न पहुँचने पर वह चिपका हुआ संचित मल भी बाहर निकल जायेगा| Continue reading “संचित कर्मों का क्षय” »

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पंथडो निहाळुं रे

Listen to पंथडो निहाळुं रे

श्री अजितनाथ जिन स्तवन
राग : आशावरी – ‘‘मारुं मन मोह्युं रे श्री सिद्धाचले रे…’’ ए देशी
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निवृत्ति – प्रवृत्ति

निवृत्ति   प्रवृत्ति

असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं

असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति होनी चाहिये

प्राण धारण करनेवाला प्रत्येक जीवन सक्रिय होता है| वह अच्छी या बुरी प्रवृत्ति करता रहता है| Continue reading “निवृत्ति – प्रवृत्ति” »

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आतुरता

आतुरता

आतुरा परितावेंति

आतुर परिताप देते हैं

जो व्यक्ति आतुर होते हैं अर्थात् कामातुर या विषयातुर होते हैं, वे दूसरों को परिताप (कष्ट) देते हैं – सताते हैं स्वार्थ में अन्धे बने हुए ऐसे व्यक्तियों के विवेक – चक्षु बन्द रहते हैं| उन्हें कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का भान ही नहीं रहता| अपने कण-भर सुख के लिए वे दूसरों को मणभर दुःख पहुँचाने में भी कोई संकोच नहीं करते| अपने क्षणिक सुख के लिए दूसरों को चिरस्थायी दुःख देनेवाले इन व्यक्तियों की क्रूरता अपनी चरम सीमा पर जा पहुँचती है| Continue reading “आतुरता” »

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जो उत्थित हैं, वे प्रमाद न करें

जो उत्थित हैं, वे प्रमाद न करें

उट्ठिए, नो पमायए
जो प्रसुप्त है, उसे जागृत होना चाहिये| जो जागृत हो चुका है, उसे उत्थित होना चाहिये अर्थात् शय्या छोड़ कर उठ बैठना चाहिये और जो उत्थित हो चुका है, उसे प्रमाद नहीं करना चाहिये अर्थात् उसे खड़े होकर साधना के पथ पर – सन्मार्ग पर चल पड़ना चाहिये; Continue reading “जो उत्थित हैं, वे प्रमाद न करें” »

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साधकों का चक्षु

साधकों का चक्षु

से हु चक्खु मणुस्साणं,
जे कंखाए य अन्तए

जिसने कांक्षा (आसक्ति) का अन्त कर दिया है, वह मनुष्यों का चक्षु है

जिसने अपनी कामनाओं को वश में कर लिया है – जो अपनी इन्द्रियों के विषयों पर किञ्चित् भी आसक्ति नहीं रखता, वही पुरुष निरपेक्ष होता है – निष्पक्ष होता है – निःस्वार्थ होता है| और इसीलिए आध्यात्मिक-साधना करनेवालों को पथदर्शन करने का वह पूर्ण अधिकारी होता है| Continue reading “साधकों का चक्षु” »

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Motivational Wallpaper #35

इंसान अपना वो चेहरा तो खूब सजाता है जिस पर लोगों की नज़र होती है मगर आत्मा को सजाने की कोशिश कोई नहीं करता जिस पर परमात्मा की नज़र होती है

Standard Screen Widescreen
800×600 1280×720
1024×768 1280×800
1400×1050 1440×900
1600×1200 1920×1080  
  1920×1200  
  2560×1440  
  2560×1600  

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पर्युषण महापर्व – कर्तव्य चौथा

पर्युषण महापर्व   कर्तव्य चौथा

कर्तव्य चौथा – अट्ठमतप

सम्यक्त्वी की विधिपूर्वक की नवकारशी जितने तपसे नरकमें दुःख सहन करने में कारणभूत १०० सालके पापकर्मों का नाश हो जाता है| इस मार्ग पर यदि आगे बढ़े तो पोरिसी से १००० साल… एकासणासे १० लाख साल, उपवाससे १० हज़ार करोड वर्ष, छट्ठ से १ लाख करोड़ वर्ष और अट्ठमसे १० लाख करोड़ वर्ष के पाप नष्ट होते हैं| दो इँच की जीभ के रस को पुष्ट करने के लिए अनादिकाल से अभक्ष्य भोजनादि करके किये हुए पाप का प्रायश्चित अट्ठम तप है, जो आहारसंज्ञा को तोडने में भी सुरंग समान है| यह तप नामके अग्नि से एक ही झटकेमें कर्मोके हजारो टन कचरे का निकाल होता है| विशिष्ट तपके प्रभावसे ही नंदिषेण मुनि आदि की तरह ढ़ेर सारी लब्धि प्राप्त होती हैं| Continue reading “पर्युषण महापर्व – कर्तव्य चौथा” »

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अपना दुःख

अपना दुःख

एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं

आत्मा अकेला ही अपना दुःख भोगता है

दुःख अपनी भूल का एक अनिवार्य परिणाम है, जिसे प्रत्येक प्राणी भोगता है| अपना दुःख दूसरा कोई बँटा नहीं सकता| चाहे कोई कितना भी घनिष्ट मित्र हो, रिश्तेदार हो, कुटुम्बी हो- अपने दुःख में वे लोग सहानुभूति प्रकट कर सकते हैं – सेवा कर सकते हैं – सहायता कर सकते हैं, परन्तु हमारा दुःख वे छीन नहीं सकते – भोग नहीं सकते | Continue reading “अपना दुःख” »

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