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सदा अमूढ़

सदा अमूढ़

सम्मद्दिट्ठि सया अमूढे

जिसकी दृष्टि सम्यक् है, वह सदा अमूढ़ होता है

मिथ्याद्दष्टि मूढ़ होता है; उसकी मूढ़ता सत्संग से मिट सकती है; किंतु सम्यग्द्दष्टि अमूढ़ होता है, उसकी अमूढ़ता कुसंगति से भी नहीं मिटती| Continue reading “सदा अमूढ़” »

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विग्रहवर्धक बात न कहें

विग्रहवर्धक बात न कहें

न य विग्गहियं कहं कहिज्जा

विग्रह बढ़ानेवाली बात नहीं करनी चाहिये

बहुत-से लोगों की यह आदत होती है कि वे अधूरी बातें सुन-सुनाकर कलह उत्पन्न कर देते हैं| कभी-कभी अपनी ओर से नमक-मिर्च लगाकर वे बात का बतंगड बना देते हैं – तिल का ताड़ कर देते हैं और राई का पहाड़| Continue reading “विग्रहवर्धक बात न कहें” »

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अति मात्रा में नहीं लेते

अति मात्रा में नहीं लेते

नाइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे

जो अति मात्रा में अ-जल ग्रहण नहीं करता, वही निर्ग्रन्थ है

बहुत-से लोग हैं, जो स्वाद के लालच में ठूँस-ठूँस कर भोजन कर लेते हैं और फिर लम्बे समय तक बीमारी भोगते रहते हैं| Continue reading “अति मात्रा में नहीं लेते” »

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भगवान सत्य

भगवान सत्य

तं सच्चं भगवं

सत्य ही भगवान है

भगवान, ईश्वर, गॉड, अल्लाह, खुदा आदि परमात्मा के विभिन्न नाम हैं| जगत में परमात्मा ही सर्वोच्च सत्ता पर प्रतिष्ठित है; परन्तु वह परमात्मा कैसा है ? उसका स्वरूप क्या है ? इस विषय में विभिन्न दार्शनिकों के विभिन्न मत हैं| Continue reading “भगवान सत्य” »

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अदीनभाव से रहो

अदीनभाव से रहो

अदीणमणसो चरे
विनय गुण है; परन्तु दीनता दोष है| विनीत विवेकशील होता है| वह अपने से अधिक ज्ञानियों के सामने सदा नम्र रहता है, जिससे कि वह उनसे ज्ञान-लाभ पा सके| Continue reading “अदीनभाव से रहो” »

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अनन्यदर्शी बनें

अनन्यदर्शी बनें

जो अणण्णदंसी से अणण्णारामे

जो अनन्यदर्शी होता है, वह अनन्याराम होता है और जो अनन्याराम होता है, वह अनन्यदर्शी होता है

‘स्व’ या आत्मा के अतिरिक्त जो अन्यत्र अपनी दृष्टि नहीं रखता, वह अनन्यदृष्टि है| ऐसा व्यक्ति अन्यत्र रमण न करने से ‘अनन्याराम’ कहलाता है| Continue reading “अनन्यदर्शी बनें” »

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एकज्ञ-सर्वज्ञ

एकज्ञ सर्वज्ञ

जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ|
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ||

जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है

जिसे एक (आत्मा) का ज्ञान है, उसे सब (अनात्म पदार्थों) का ज्ञान है और जिसे सब (अजीव तत्त्वों) का ज्ञान है, उसे एक (आत्मतत्त्व) का ज्ञान है|

जिसे आत्मस्वरूप का सम्यग्ज्ञान हो जाता है, वह अनात्मतत्त्वों में रमण नहीं करता; क्यों कि वह आत्मभि पदार्थों के स्वरूप को – उनकी क्षणिकताको भी जान लेता है| Continue reading “एकज्ञ-सर्वज्ञ” »

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सम्यक्त्व के अभाव में

सम्यक्त्व के अभाव में

नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं

सम्यक्त्व के अभाव में चारित्र नहीं हो सकता

सम्यक्त्व का अर्थ है – सम्यक् पर श्रद्धा| सदाचार क्या है और दुराचार क्या? – अच्छे आचरण का फल कैसा होता है; बुरे आचरण का कैसा? – किसने किस समय कैसा आचरण किया और उसे कब कैसा फल प्राप्त हुआ? यही बताने के लिए विभिन्न धर्मशास्त्र रचे जाते हैं, जिससे कि शास्त्रीय स्वाध्याय करनेवाले या शास्त्रीय प्रवचन सुननेवाले दुराचार से दूर रहकर सदाचार को अपनाने की – जीवन में उतारने की प्रेरणा ग्रहण कर सकें| Continue reading “सम्यक्त्व के अभाव में” »

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मूर्त्त या अमूर्त्त

मूर्त्त या अमूर्त्त

नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा,
अमुत्तभावा वि य होइ निच्चं

आत्मा आदि अमूर्त्त तत्त्व इन्द्रियग्राह्य नहीं होते और जो अमूर्त्त होते हैं, वे नित्य भी होते हैं

यथार्थ तत्त्वों के ज्ञाता जानते हैं कि पदार्थ दो प्रकार के होते हैं – मूर्त्त और अमूर्त्त, साकार और निराकार या प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष| Continue reading “मूर्त्त या अमूर्त्त” »

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समय पर पूरा कीजिये

समय पर पूरा कीजिये

जेहिं काले परक्कंतं,
न पच्छा परितप्पए

जो समय पर अपना काम कर लेते हैं, वे बाद में पछताते नहीं है

जो आलस्यवश अपना कर्त्तव्य समय पर पूरा नही करते, वे बाद में पछताते हैं, परन्तु उससे लाभ क्या? जिसे पौधे को सूखने से पहले सिंचित नहीं किया, उसके लिए बाद में बैठे-बैठे पछताने से क्या वह हराभरा हो जायेगा? कभी नहीं| Continue reading “समय पर पूरा कीजिये” »

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