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दूर से ही त्याग

दूर से ही त्याग

कुसीलवड्ढणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए

कुशील (दुराचार) बढ़ानेवाले कारणों का दूर से ही त्याग करना चाहिये

शील का अर्थ है – स्वभाव| जिसका स्वभाव अच्छा होता है – प्रशंसनीय होता है, वह सुशील कहलाता है| जो व्यक्ति चाहता है कि सब लोग उससे प्यार करें – उसकी प्रशंसा करें, वह सदा सुशील बनने का और बने रहने का प्रयास करेगा| Continue reading “दूर से ही त्याग” »

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पीठ का मांस न खायें

पीठ का मांस न खायें

पिट्ठिमंसं न खाएज्जा

पीठ का मांस नहीं खाना चाहिये अर्थात् किसी की निन्दा उसकी अनुपस्थिति में नहीं करनी चाहिये

किसीकी पीठ पीछे बुराई करना अपनी कायरता का प्रतीक है| यदि किसी की बुराई को नष्ट करना हमारा उद्देश्य है तो हमें उसकी बुराई उसके सामने ही प्रकट करनी चाहिये, जिससे कि विचार करके वह उसे छोड़ सके| Continue reading “पीठ का मांस न खायें” »

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साधु-सम्पर्क

साधु सम्पर्क

कुज्जा साहूहिं संथवं

साधुओं से सम्पर्क रखना चाहिये

संस्तव का अर्थ है – परिचय, सम्पर्क या संगति|

संगति पूरे जीवन को प्रभावित करती है| वह उन्नति के द्वार खोल देती है| एक कीट – कितना साधारण जीवन होता है उसका? परन्तु फूलों के साथ रहकर भगवान की मूर्ति के सिरपर जा पहुँचता है वह| एक छोटी नदी या नाला गंगा के साथ मिलकर कहॉं जा पहुँचता है? रत्नाकर समुद्र में| Continue reading “साधु-सम्पर्क” »

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त्यागी कौन नहीं ?

त्यागी कौन नहीं ?

अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइ त्ति वुच्चई

जो पराधीन होने से भोग नहीं कर पाते, उन्हें त्यागी नहीं कहा जा सकता

कल्पना कीजिये – दो व्यक्तियों के पास सौ-सौ रुपये हैं| एक उनमें से पचास रुपयों का दान कर देता है और दूसरे व्यक्ति के पचास रुपये कहीं खो जाते हैं| इस प्रकार दोनों के पास बराबर पचास-पचास रुपये ही बचे रहते हैं; फिर भी हम पहले व्यक्ति को ही त्यागी कहेंगे, दूसरे को नहीं| ऐसा क्यों! Continue reading “त्यागी कौन नहीं ?” »

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मूर्च्छा ही परिग्रह है

मूर्च्छा ही परिग्रह है

मुच्छा परिग्गहो वुत्तो

मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा गया है

मूर्च्छा या आसक्ति ही परिग्रह है| अपने चारों ओर जो सामग्री होती है, वह सब परिग्रह नहीं कहलाती; परन्तु जिस सामग्री को हम अपनी समझते हैं अर्थात् जिस सामग्री पर हमारी ममता जागृत हो जाती है, वही परिग्रह कहलाती है| Continue reading “मूर्च्छा ही परिग्रह है” »

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वाणी के गुण

वाणी के गुण

मियं अदुट्ठं अणुवीइ भासए,
सयाण मज्झे लहइ पसंसणं

जो विचारपूर्वक परिमित और निर्दोष वचन बोलता है, वह सज्जनों के बीच प्रशंसा पाता है

बोलते सब हैं, किन्तु ऐसे कितने व्यक्ति हैं, जो वास्तव में बोलना जानते हैं? Continue reading “वाणी के गुण” »

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असंविभागी

असंविभागी

असंविभागी न हु तस्स मोक्खो

जो संविभागी नहीं है अर्थात् प्राप्त सामग्री को साथियों में बॉंटता नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होती

जो अकेला ही प्राप्त सामग्री का भोग करता है, उसे बहुत कम सुख मिलता है| इसके विपरीत जो व्यक्ति दूसरे साथियों को बॉंट-बॉंट कर सबके साथ बैठ कर अपनी प्राप्त सामग्री भोगता है, उसे अधिक सुख का अनुभव होता है| Continue reading “असंविभागी” »

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प्रशंसा से मोह

प्रशंसा से मोह

कसोक्खेहिं सद्देहिं पेमं नाभिनिवेसए

कानों को सुख देने वाले (मधुर) शब्दों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिये

यदि हम अच्छे काम करेंगे तो लोग हमारी प्रशंसा करेंगेही| प्रशंसा के शब्द बहुत मीठे लगते हैं – कानों को प्रिय लगते हैं; परन्तु कर्णप्रिय शब्दों में हमारी आसक्ति नहीं होनी चाहिये, अन्यथा सम्भव यही है कि हम धूर्तों से धोखा खा जायें| Continue reading “प्रशंसा से मोह” »

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सरलता और सन्तोष

सरलता और सन्तोष

माया मज्जवभावेणं,
लोहं सन्तोसओ जिणे

माया को ऋजुता से और लोभ को सन्तोष से जीतें

सरल और कुटिल परस्पर विलोम शब्द है| सरलता सम्प व्यक्ति पर लोग अखण्ड विश्‍वास करते हैं और कुटिलता सम्प व्यक्ति पर सर्वथा अविश्‍वास | जहॉं विश्‍वास है, वहीं प्रेम है और जहॉं प्रेम है, वहीं सुख है| Continue reading “सरलता और सन्तोष” »

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लोभ सर्वनाशक है

लोभ सर्वनाशक है

लोहो सव्वविणासणो

लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है

क्रोध प्रेम का, मान विनय का और माया अथवा छल मित्रों का नाशक है; परन्तु लोभ इन सबमें प्रबल है| वह समस्त सद्गुणों को नष्ट कर देता है| Continue reading “लोभ सर्वनाशक है” »

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