1 0 Tag Archives: जैन आगम
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अपना दुःख

अपना दुःख

एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं

आत्मा अकेला ही अपना दुःख भोगता है

दुःख अपनी भूल का एक अनिवार्य परिणाम है, जिसे प्रत्येक प्राणी भोगता है| अपना दुःख दूसरा कोई बँटा नहीं सकता| चाहे कोई कितना भी घनिष्ट मित्र हो, रिश्तेदार हो, कुटुम्बी हो- अपने दुःख में वे लोग सहानुभूति प्रकट कर सकते हैं – सेवा कर सकते हैं – सहायता कर सकते हैं, परन्तु हमारा दुःख वे छीन नहीं सकते – भोग नहीं सकते | Continue reading “अपना दुःख” »

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बुद्धिमान में नम्रता

बुद्धिमान में नम्रता

नच्चा नमइ मेहावी

बुद्धिमान ज्ञान पा कर नम्र हो जाता है

जिन वृक्षों पर फल लग जाते हैं, उनकी डालियॉं झुक जाती हैं; इसी प्रकार जिन मनुष्यों में ज्ञान पैदा हो जाता है, वे नम्र हो जाते हैं| Continue reading “बुद्धिमान में नम्रता” »

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त्यागी कौन नहीं ?

त्यागी कौन नहीं ?

अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइ त्ति वुच्चई

जो पराधीन होने से भोग नहीं कर पाते, उन्हें त्यागी नहीं कहा जा सकता

कल्पना कीजिये – दो व्यक्तियों के पास सौ-सौ रुपये हैं| एक उनमें से पचास रुपयों का दान कर देता है और दूसरे व्यक्ति के पचास रुपये कहीं खो जाते हैं| इस प्रकार दोनों के पास बराबर पचास-पचास रुपये ही बचे रहते हैं; फिर भी हम पहले व्यक्ति को ही त्यागी कहेंगे, दूसरे को नहीं| ऐसा क्यों! Continue reading “त्यागी कौन नहीं ?” »

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त्रास मत दो

त्रास मत दो

न य वि त्तासए परं

किसी भी अन्य जीव को त्रास मत दो

कष्ट ! कितनी बुरी वस्तु है यह| नाम सुनकर भी मन को कष्ट की अनुभूति होने लगती है| कौन है, जो चाहेगा ? कोई नहीं| Continue reading “त्रास मत दो” »

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प्राणवध कैसा है?

प्राणवध कैसा है?

पाणवहो चंडो रुद्दो, खुद्दो, अणारियो,
निग्धिणो, निसंसो, महब्भभओ

प्राणवध चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणारहित है, क्रूर है, भयंकर है

प्राणवध का अर्थ है – प्राणों की हिंसा, प्राणों का नाश| इसका स्वरूप प्रकट करते हुए अथवा इसका परिचय देते हुए ज्ञानियों ने कहा है :- प्राणवध बड़ा ही प्रचण्ड है-उग्र है-असह्य है; क्योंकि इसे कोई सह नहीं सकता| Continue reading “प्राणवध कैसा है?” »

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मैं अकेला हूँ

मैं अकेला हूँ

एगे अहमसि, न मे अत्थि कोई,
न वाऽहमवि कस्स वि

मैं अकेला हूँ – मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ

यह संसार एक महान सरोवर की तरह है, जिसमें तिनकों की तरह प्राणी इधर-उधर से बहकर आते हैं, मिलते हैं, कुछ समय साथ रहते हैं और हवा का झोंका लगते ही (मृत्यु का धक्का लगते ही) पुनः इधर-उधर बिखर जाते हैं| Continue reading “मैं अकेला हूँ” »

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मैं अन्य हूँ

मैं अन्य हूँ

ए खलु कामभोगा, ओ अहमसि

कामभोग अन्य हैं, मैं अन्य हूँ

मधुर संगीत, सुन्दर दृश्य, इत्र, पुष्प हार, मिठाई, नमकीन, कोमल एवं शीतल वस्तु का स्पर्श आदि अनेक कामभागों की विविध आकर्षक सामग्री इस जगत में सर्वत्र बिखरी पड़ी है| Continue reading “मैं अन्य हूँ” »

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मूर्च्छा ही परिग्रह है

मूर्च्छा ही परिग्रह है

मुच्छा परिग्गहो वुत्तो

मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा गया है

मूर्च्छा या आसक्ति ही परिग्रह है| अपने चारों ओर जो सामग्री होती है, वह सब परिग्रह नहीं कहलाती; परन्तु जिस सामग्री को हम अपनी समझते हैं अर्थात् जिस सामग्री पर हमारी ममता जागृत हो जाती है, वही परिग्रह कहलाती है| Continue reading “मूर्च्छा ही परिग्रह है” »

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निन्दक भटकता है

निन्दक भटकता है

जो परिभवइ परं जणं,
संसारे परिवत्तई महं

जो दूसरे मनुष्य का परिभव (तिरस्कार) करता है, वह संसार में भटकता रहता है

सब मनुष्य एक से एक बढ़कर हैं| कोई इससे बड़ा है तो कोई उससे-कोई अमुक गुण में महान है तो कोई अमुक गुण में; इसलिए कभी किसी को अपने से तुच्छ मानने की भूल नहीं करनी चाहिये| Continue reading “निन्दक भटकता है” »

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कठोर वाणी न बोलें

कठोर वाणी न बोलें

नो वयणं फरूसं वइज्जा

वाणी भी दो तरह की होती है – कठोर और कोमल| क्रोध और क्रूरता में वाणी कठोर निकलती है तथा विनय और शान्ति में कोमल | करुणा, दया, सहानुभूति, प्रेम, ममता, मोह, स्नेह और माया की वाणी कोमल होती है| इसके विपरीत निष्ठुरता, निर्दयता, द्वेष, क्रोध आदि में वाणी कठोर निकलती है| Continue reading “कठोर वाणी न बोलें” »

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