1 0 Tag Archives: जैन आगम
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विषय-विरक्ति

विषय विरक्ति

वंतं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे

वान्त पीना चाहते हो ? इससे तो तुम्हारा मर जाना अच्छा है

थूक को चाटना किसे अच्छा लगता है ? कै (वमन) में मुँह से बाहर निकली वस्तु को भला कौन पीना चाहेगा? कोई नहीं| थूक और वान्त से सभी घृणा करते हैं और इन्हें पुनः उदरसात् करने की अपेक्षा मर जाना अच्छा समझते हैं| Continue reading “विषय-विरक्ति” »

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अनेकान्तवादी बनें

अनेकान्तवादी बनें

विभज्जवायं च वियागरेज्जा

स्याद्वाद से युक्त वचनों का प्रयोग करना चाहिये

‘स्याद्वाद’ एक दार्शनिक सिद्धान्त है| ‘स्यात्’ का अर्थ अपेक्षा है; इसलिए इसे सापेक्षवाद भी कह सकते हैं| वैसे किसी एक बात का आग्रह न होने से यह ‘अनेकान्तवाद’ के नाम से ही दुनिया में अधिक प्रसिद्ध है| Continue reading “अनेकान्तवादी बनें” »

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ज्ञान का सार

ज्ञान का सार

एवं खु णाणिणो सारं,
जं न हिंसइ किंचणं

अहिंसा या दया एक धर्म है; किन्तु इसका सम्यक् परिपालन करने से पहले ज्ञान होना आवश्यक है

जो व्यक्ति जीवाजीवादि नव तत्त्वों को अच्छी तरह से जान लेता है – इनके स्वरूप को हृदयंगम कर लेता है, वही सच्चा अहिंसक बन सकता है| Continue reading “ज्ञान का सार” »

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सम्यग्दृष्टि में स्थिरता

सम्यग्दृष्टि में स्थिरता

से दिट्ठिमं दिट्ठि न लूसएज्जा

सम्यग्दृष्टि साधक को सत्यदृष्टि का अपलाप नहीं करना चाहिये

जिसकी दृष्टि सम्यक् है, उसे कभी अपनी दृष्टि को शिथिल नहीं करना चाहिये| एक बार जिस व्यक्ति का जैसा दृष्टिकोण बन जाता है, उसे वैसा ही दिखाई देता है| Continue reading “सम्यग्दृष्टि में स्थिरता” »

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सहिष्णुता

सहिष्णुता

पियमप्पियं सव्वं तितिक्खएज्जा

प्रिय हो या अप्रिय-सबको समभाव से सहना चाहिये

सदा प्रिय वस्तुओं का ही संयोग नहीं होता – सर्वत्र प्रशंसा ही प्राप्त नहीं होती – सभी लोक कोमल मीठे वचन ही नहीं बोला करते; किन्तु हमें अनेक बार अप्रिय वस्तुएँ भी प्राप्त होती हैं – हमारी निन्दा भी होती है – कठोर शब्दों को सुनने का अवसर आता है; सबकुछ समभावपूर्वक हमें सहना चाहिये – ऐसा वीतरागदेवों का आदेश है| सहिष्णुता वीरता का प्रतीक है और असहिष्णुता कायरता का| Continue reading “सहिष्णुता” »

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आत्मविजय

आत्मविजय

सव्वं अप्पे जिए जियं

अपने को जीतने पर सबको जीत लिया जाता है

अपने को जीतने का अर्थ है – मन को जीतना – मनोवृत्तियों को अपने वश में रखना| Continue reading “आत्मविजय” »

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अप्रमत्त या प्रमत्त

अप्रमत्त या प्रमत्त

सव्वओ पमत्तस्स भयं,
सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं

मत्त को सब ओर से भय रहता है, किन्तु अप्रमत्त को किसी भी ओर से भय नहीं रहता

डरता कौन है? जो नियमों का भंग करता है, भूलें करता है, अपराध करता है, उसीको चारों ओर से डर लगता है| इसके विपरीत जो नियमों का पालन करता है, भलें नहीं करता, कदम-कदम पर सावधान रहता है कि कहीं उससे अपराध न हो जाये, वह निर्भय रहता है – उसे कहीं भी किसीसे भय नहीं रहता| Continue reading “अप्रमत्त या प्रमत्त” »

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बोधिरत्न की सुदुर्लभता

बोधिरत्न की सुदुर्लभता

बहुकम्मलेवलित्ताणं बोही
होइ सुदुल्लहा तेसिं

जो आत्माएँ बहुत अधिक कर्मों से लिप्त हैं, उनके लिए बोधि अत्यन्त दुर्लभ है

प्रत्येक संसारी जीव कर्मों से लिप्त है| कर्मों का यह लेप जिस जीव पर जितना अधिक चढ़ा हुआ है, वह उतना ही अधिक दूर रहता है – सम्यग्ज्ञान से| Continue reading “बोधिरत्न की सुदुर्लभता” »

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धर्म कहॉं टिकता है ?

धर्म कहॉं टिकता है ?

सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ

ऋजु या सरल आत्मा की शुद्धि होती है और शुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है

जिस व्यक्ति में सरलता होती है, उसीकी आत्मा शुद्ध होती है| इसके विपरीत जिसमें कुटिलता होती है; उसकी आत्मा शुद्ध हो-यह सम्भव नहीं है| Continue reading “धर्म कहॉं टिकता है ?” »

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दूर से ही त्याग

दूर से ही त्याग

कुसीलवड्ढणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए

कुशील (दुराचार) बढ़ानेवाले कारणों का दूर से ही त्याग करना चाहिये

शील का अर्थ है – स्वभाव| जिसका स्वभाव अच्छा होता है – प्रशंसनीय होता है, वह सुशील कहलाता है| जो व्यक्ति चाहता है कि सब लोग उससे प्यार करें – उसकी प्रशंसा करें, वह सदा सुशील बनने का और बने रहने का प्रयास करेगा| Continue reading “दूर से ही त्याग” »

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