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वाणी के गुण

वाणी के गुण

मियं अदुट्ठं अणुवीइ भासए,
सयाण मज्झे लहइ पसंसणं

जो विचारपूर्वक परिमित और निर्दोष वचन बोलता है, वह सज्जनों के बीच प्रशंसा पाता है

बोलते सब हैं, किन्तु ऐसे कितने व्यक्ति हैं, जो वास्तव में बोलना जानते हैं? Continue reading “वाणी के गुण” »

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नि: स्वार्थ सेवा सच्चा दान है

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जनक सुता हुं नाम

Listen to जनक सुता हुं नाम

भाव : महासती सीतानो रावणने पडकार ने शील दृढता

जनक सुता हुं नाम धरावुं,
राम छे अंतर जामी;
पालव मारो मेलोने पापी,
कुळने लागे छे खामी.
अडशो मांजो, मांजो मांजो मांजो मांजो अडशो,
म्हारो नावलीयो दुहवाय,
मने संग केनो न सुहाय;
म्हारुं मन मांहेथी अकळाय.

…अ.१

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आलोचना का प्रायश्चित्त किसे दिया जाए?

आलोचना का प्रायश्चित्त किसे दिया जाए?

न हु सुज्झइ ससल्लो जह
भणियं सासणे धुयरयाणं|
उद्धरियसव्वसल्लो सुज्झइ जीवो धुयकिलेसे॥

कर्मरज जिन्होंने दूर कर दी है, ऐेसे परमात्मा के शासन में कहा गया है कि शल्य (छिपाए हुए पाप) सहित कोई भी जीव शुद्ध नहीं होता है| क्लेश रहित बनकर सभी शल्यों को दूर करके ही जीव शुद्ध बनता है| अतः शुद्ध होने के लिए आलोचना अवश्य कहनी चाहिए| Continue reading “आलोचना का प्रायश्चित्त किसे दिया जाए?” »

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Motivational Wallpaper #40

व्यक्ति वैसा ही होता है,
जैसी इच्छा ह्रदय में रखता है

Standard Screen Widescreen Mobile
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धर्मानुकूल आजीविका

धर्मानुकूल आजीविका

धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति

सद्गृहस्थ धर्मानुकूल ही आजीविका करते हैं

जीवित रहने के लिए अन्न और जल चाहिये – कुटुम्ब का पोषण करने के लिए धन चाहिये| मुनियों की बात दूसरी है; परन्तु जो गृहस्थ है, उन्हें तो इस संसार में पद पद पर सम्पत्ति की आवश्यकता होती है| कहते हैं – जिस मुनि के पास कौड़ी (एक पैसा भी) हो, वह कौड़ी का और जिस गृहस्थ के पास कौड़ी न हो, वह भी कौड़ी का ! Continue reading “धर्मानुकूल आजीविका” »

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नाथ कहे तुं सुणने नारी

Listen to नाथ कहे तुं सुणने नारी

भाव : नारी ने नारायणी बनावती हितशिक्षा

नाथ कहे तुं सुणने नारी, शिखामण छे सारी जी;
वचन ते सघळां वीणी लेशे, तेहना कारज सरशे, शाणी थइए ज.

…1

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गर्भ में आते हैं

गर्भ में आते हैं

माई पमाई पुण एइ गब्भं

मायावी और प्रमादी फिर से गर्भ में आते हैं

गर्भ में आने का अर्थ है – जन्म धारण करना और जन्म धारण करने का अर्थ है – एक दिन सब छोड़ कर मर जाना अर्थात् जन्म-मरण के चक्कर में पड़े रहना| Continue reading “गर्भ में आते हैं” »

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लाभ और लोभ

लाभ और लोभ

जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ

ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों त्यों लोभ होता है और लाभ से लोभ बढ़ता रहता है

स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रत्येक संसारी जीव निरन्तर प्रयत्न करता रहता है| इस प्रयत्न में कभी उसे सफलता प्राप्त होती है और कभी विफलता|

सफलता से उत्साह बढ़ता है और विफलता से वह नष्ट हो जाता है| Continue reading “लाभ और लोभ” »

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