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शुद्धात्मा

शुद्धात्मा

भावणाजोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया

जिसकी आत्मा भावनायोग से शुद्ध है, वह जल में नौका के समान है

डाकू भी छुरे का प्रयोग करता है और डाक्टर भी, परन्तु एक किसी की हत्या करके धन लूटना चाहता है और दूसरा आपरेशन करके रुग्ण या सड़े अंगको काटना चाहता है, जिससे बीमार व्यक्ति स्वस्थ हो सके| एक पापी है, दूसरा पुण्यात्मा- एक तक्षक है, दूसरा रक्षक!

चूहे को भी बिल्ली मुँह से पकड़ती है और अपने बच्चे को भी; परन्तु एक को वह खाना चाहती है और दूसरे को सुरक्षित रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना चाहती है| क्रियाएँ समान होने पर भी भावना में कितना अन्तर है?

किसी पुत्र को उसके पिताजी भी पीटते हैं और अन्य बालक भी; परन्तु पिताजी उसे सुधारना चाहते हैं और अन्य बालक शत्रुतावश ऐसा करते हैं| इस प्रकार पिटाई एक-सी होने पर भी भावों की भिन्नता से परिणाम भिन्न भिन्न होते हैं|

ज्ञानी कहते हैं कि भावों का ही अधिक महत्त्व है| अतः भावनायोग से जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है; वे जल में नौका के समान तैरते हुए उस पार चले जाते हैं; क्योंकि वे शुद्धात्मा हैं|

- सूत्रकृतांग सूत्र 1/15/5

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संग्रह न करे !

संग्रह न करे !

बहुं पि लद्धुं न निहे

अधिक प्राप्त होने पर भी संग्रह नहीं करना चाहिये

पानी का एक जगह संग्रह हो जाये और उसे इधर-उधर बहने का अवसर न मिले; तो वह पड़ा-पड़ा सड़ने लगता है| धन का भी यही हाल होता है| यदि वह अधिक मात्रा में एकत्र हो जाये जो उसे सुरक्षित रखने की चिन्ता सिर पर सवार हो जाती है| कुटुम्बी, चोर, डाकू सभी उसके पीछे लग जाते हैं और छीनने की कोशिश करते हैं| Continue reading “संग्रह न करे !” »

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विषय-विरक्ति

विषय विरक्ति

वंतं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे

वान्त पीना चाहते हो ? इससे तो तुम्हारा मर जाना अच्छा है

थूक को चाटना किसे अच्छा लगता है ? कै (वमन) में मुँह से बाहर निकली वस्तु को भला कौन पीना चाहेगा? कोई नहीं| थूक और वान्त से सभी घृणा करते हैं और इन्हें पुनः उदरसात् करने की अपेक्षा मर जाना अच्छा समझते हैं| Continue reading “विषय-विरक्ति” »

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अनेकान्तवादी बनें

अनेकान्तवादी बनें

विभज्जवायं च वियागरेज्जा

स्याद्वाद से युक्त वचनों का प्रयोग करना चाहिये

‘स्याद्वाद’ एक दार्शनिक सिद्धान्त है| ‘स्यात्’ का अर्थ अपेक्षा है; इसलिए इसे सापेक्षवाद भी कह सकते हैं| वैसे किसी एक बात का आग्रह न होने से यह ‘अनेकान्तवाद’ के नाम से ही दुनिया में अधिक प्रसिद्ध है| Continue reading “अनेकान्तवादी बनें” »

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Birth Ceremonies

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शेठ मोतीषा

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ज्ञान का सार

ज्ञान का सार

एवं खु णाणिणो सारं,
जं न हिंसइ किंचणं

अहिंसा या दया एक धर्म है; किन्तु इसका सम्यक् परिपालन करने से पहले ज्ञान होना आवश्यक है

जो व्यक्ति जीवाजीवादि नव तत्त्वों को अच्छी तरह से जान लेता है – इनके स्वरूप को हृदयंगम कर लेता है, वही सच्चा अहिंसक बन सकता है| Continue reading “ज्ञान का सार” »

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सम्यग्दृष्टि में स्थिरता

सम्यग्दृष्टि में स्थिरता

से दिट्ठिमं दिट्ठि न लूसएज्जा

सम्यग्दृष्टि साधक को सत्यदृष्टि का अपलाप नहीं करना चाहिये

जिसकी दृष्टि सम्यक् है, उसे कभी अपनी दृष्टि को शिथिल नहीं करना चाहिये| एक बार जिस व्यक्ति का जैसा दृष्टिकोण बन जाता है, उसे वैसा ही दिखाई देता है| Continue reading “सम्यग्दृष्टि में स्थिरता” »

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सहिष्णुता

सहिष्णुता

पियमप्पियं सव्वं तितिक्खएज्जा

प्रिय हो या अप्रिय-सबको समभाव से सहना चाहिये

सदा प्रिय वस्तुओं का ही संयोग नहीं होता – सर्वत्र प्रशंसा ही प्राप्त नहीं होती – सभी लोक कोमल मीठे वचन ही नहीं बोला करते; किन्तु हमें अनेक बार अप्रिय वस्तुएँ भी प्राप्त होती हैं – हमारी निन्दा भी होती है – कठोर शब्दों को सुनने का अवसर आता है; सबकुछ समभावपूर्वक हमें सहना चाहिये – ऐसा वीतरागदेवों का आदेश है| सहिष्णुता वीरता का प्रतीक है और असहिष्णुता कायरता का| Continue reading “सहिष्णुता” »

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पर्युषण महापर्व – कर्तव्य दूसरा

पर्युषण महापर्व   कर्तव्य दूसरा

कर्तव्य दूसरा – साधर्मिक भक्ति

द्वितीय कर्त्तव्य… साधर्मिक भक्ति ‘‘मेरा सो मेरा ही’’ ऐसी स्वार्थ वृत्ति को दूर करता है| बुद्धिनिधान अभयकुमार नामक साधर्मिक ने कालसौरिक कसाइर्२ के पुत्र सुलस को जैनधर्म-अहिंसा की प्रेरणा देकर हिंसक धंधे से दूर होने के लिए जोर-बल दिया था| मृत्यु के समय भाई के प्रति द्वेष रखने के कारण नरकमें जाकर संसार वनमें भटकने के लिए तैयार युगबाहु को पत्नी मदनरेखाने कल्याणमित्र की भूमिका बजा कर-सच्चा रिश्ता साधर्मिक का इस बात को सिद्ध करके… भाई के प्रति वैरभाव से जो असमाधि उत्पन्न हुई थी, उसको दूर करके सद्गति दिलाई और संसारमें भटकने से बचा लिया था| Continue reading “पर्युषण महापर्व – कर्तव्य दूसरा” »

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