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डरना नहीं चाहिये

डरना नहीं चाहिये

ण भाइयव्वं, भीतं खु भया अइंति लहुयं

डरना नहीं चाहिये| भीत के निकट भय शीघ्र आते हैं

डरता वही है, जो अपराधी है – पापी है – हत्यारा है| चोर और व्यभिचारी भी निरन्तर डरते रहते हैं कि कहीं कभी कोई उन्हें देख न ले – रंगे हाथों चोरी या व्यभिचार करते हुए पकड़ न ले| Continue reading “डरना नहीं चाहिये” »

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हिंसा के कारण

हिंसा के कारण

कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति

क्रुद्धा लुब्ध और मुग्ध हिंसा करते हैं

प्रमादवश प्राणियों के प्राणों को चोट पहुँचाना हिंसा है| हिंसा से सदा दूसरों को दुःख होता है| मनुष्य क्यों दूसरों को दुःख देता है? क्यों हिंसा करता है? इस पर विचार करके ज्ञानियों ने तीन कारण बतलाये हैं| Continue reading “हिंसा के कारण” »

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प्राणवध कैसा है?

प्राणवध कैसा है?

पाणवहो चंडो रुद्दो, खुद्दो, अणारियो,
निग्धिणो, निसंसो, महब्भभओ

प्राणवध चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणारहित है, क्रूर है, भयंकर है

प्राणवध का अर्थ है – प्राणों की हिंसा, प्राणों का नाश| इसका स्वरूप प्रकट करते हुए अथवा इसका परिचय देते हुए ज्ञानियों ने कहा है :- प्राणवध बड़ा ही प्रचण्ड है-उग्र है-असह्य है; क्योंकि इसे कोई सह नहीं सकता| Continue reading “प्राणवध कैसा है?” »

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सादि सान्त

सादि सान्त

सरीरं सादियं सनिधणं

शरीर सादि है और सान्त भी

इस जगत् के समस्त पदार्थ इन चार विभागों में विभाजित किये जा सकते हैं :-
1) अनादि अनन्त
2) अनादि सान्त
3) सादि अनन्त
4) सादि सान्त
Continue reading “सादि सान्त” »

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लोभ और चंचलता

लोभ और चंचलता

लद्धो लोलो भणेज्ज अलियं

लोभी और चञ्चल व्यक्ति झूठ बोला करता है

जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी न कहना अयथार्थ वचन है – झूठी बात है| झूठ कौन बोलता है ? इस प्रश्‍न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति लोभी होता है, वह अपनी तृष्णा तो तृप्त करने के लिए झूठ बोलता है| तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती – यह एक वास्तविकता है; परन्तु लोभी इस वास्तविकता से अनभिज्ञ बना रह कर जीवनभर तृष्णा-तृप्ति का प्रयास करता ही रहता है| इस प्रयास में उसे कभी सफलता नहीं मिलती; फिर भी वह निरन्तर इसके लिए दौड़धूप करता ही रहता है और कदम कदम पर झूठ बोलने को तैयार रहता है| Continue reading “लोभ और चंचलता” »

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कल्याणकारिणी

कल्याणकारिणी

अहिंसा तसथावरसव्वभूयखेमंकरी

अहिंसा त्रस एवं स्थावर समस्त भूतों (प्राणियों) का कल्याण करनेवाली है

जीव दो प्रकार के होते हैं – सिद्ध, जो कर्मों से सर्वथा रहित हैं और संसारी, जिनसे कर्म चिपके हुए हैं| Continue reading “कल्याणकारिणी” »

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वाणी का आदर्श

वाणी का आदर्श

सच्चं च हियं च मियं च गाहणं च

सत्य, हित, मित और ग्राह्य वचन बोलें

जो मनुष्य गूँगे नहीं है, उन सबको व्यवहार के लिए, दूसरों को अपने मन की बात समझाने के लिए, दूसरों के मन की बात जानने के लिए कुछ-न-कुछ प्रतिदिन बोलना ही पड़ता है| Continue reading “वाणी का आदर्श” »

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न तृप्ति, न तृष्टि

न तृप्ति, न तृष्टि

देवावि सइंदगा न तित्तिं न तुट्ठिं उवलभन्ति

इन्द्रों सहित देव भी (विषयों से) न कभी तृप्त होते हैं, न सन्तुष्ट

पॉंच इन्द्रियॉं हैं और उनके अलग-अलग विषय हैं| जीवनभर जीव विषय-सामग्री को जुटाने के लिए दौड़-धूप करता रहता है| एक इन्द्रिय के विषय जुटाने पर दूसरी इन्द्रिय के और दूसरी के बाद तीसरी, चौथी और पॉंचवी इन्द्रिय के विषय क्रमशः जुटाने पड़ते हैं| Continue reading “न तृप्ति, न तृष्टि” »

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निष्प्रयोजन हिंसा

निष्प्रयोजन हिंसा

अट्ठा हणंति, अणट्ठा हणंति

कुछ लोग प्रयोजन से हिंसा करते हैं और कुछ लोग बिना प्रयोजन ही

बहुत-से लोगों की यह आदत होती है कि यों ही चलते-चलते रास्ते में आये किसी पौधे को उखाड़ कर फैंक देते हैं – फूल को तोड़ कर मसल देते हैं – पेड़ की टहनी तोड़ कर हाथ में रख लेते हैं और कुछ दूर जाकर फैंक देते हैं| बहुत-सी महिलाएँ ऐसी होती हैं कि यों ही खड़ी-खड़ी अपने पॉंव के अंगूठे से जमीन कुरेदती रहती हैं| Continue reading “निष्प्रयोजन हिंसा” »

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निर्लिप्तता और स्वावलम्बन

निर्लिप्तता और स्वावलम्बन

पोक्खरपत्तं इव निरुवलेवे,
आगासं चेव निरवलंबे

साधक को कमलपत्र की तरह निर्लेप और आकाश की तरह निरवलम्ब रहना चाहिये

कमल पानी में उत्प होता है और उसीमें रहता है; किन्तु उसके किसी भी पत्ते पर पानी की बूँद नहीं ठहरती, नहीं चिपकती| जिस प्रकार कमलपत्र पानी में रहकर भी पानी से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी संसार में रहते हुए भी उससे सर्वथा निर्लिप्त रहता है – अनासक्त रहता है| Continue reading “निर्लिप्तता और स्वावलम्बन” »

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