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कल्याणकारिणी

कल्याणकारिणी

अहिंसा तसथावरसव्वभूयखेमंकरी

अहिंसा त्रस एवं स्थावर समस्त भूतों (प्राणियों) का कल्याण करनेवाली है

जीव दो प्रकार के होते हैं – सिद्ध, जो कर्मों से सर्वथा रहित हैं और संसारी, जिनसे कर्म चिपके हुए हैं| Continue reading “कल्याणकारिणी” »

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वाणी का आदर्श

वाणी का आदर्श

सच्चं च हियं च मियं च गाहणं च

सत्य, हित, मित और ग्राह्य वचन बोलें

जो मनुष्य गूँगे नहीं है, उन सबको व्यवहार के लिए, दूसरों को अपने मन की बात समझाने के लिए, दूसरों के मन की बात जानने के लिए कुछ-न-कुछ प्रतिदिन बोलना ही पड़ता है| Continue reading “वाणी का आदर्श” »

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न तृप्ति, न तृष्टि

न तृप्ति, न तृष्टि

देवावि सइंदगा न तित्तिं न तुट्ठिं उवलभन्ति

इन्द्रों सहित देव भी (विषयों से) न कभी तृप्त होते हैं, न सन्तुष्ट

पॉंच इन्द्रियॉं हैं और उनके अलग-अलग विषय हैं| जीवनभर जीव विषय-सामग्री को जुटाने के लिए दौड़-धूप करता रहता है| एक इन्द्रिय के विषय जुटाने पर दूसरी इन्द्रिय के और दूसरी के बाद तीसरी, चौथी और पॉंचवी इन्द्रिय के विषय क्रमशः जुटाने पड़ते हैं| Continue reading “न तृप्ति, न तृष्टि” »

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निष्प्रयोजन हिंसा

निष्प्रयोजन हिंसा

अट्ठा हणंति, अणट्ठा हणंति

कुछ लोग प्रयोजन से हिंसा करते हैं और कुछ लोग बिना प्रयोजन ही

बहुत-से लोगों की यह आदत होती है कि यों ही चलते-चलते रास्ते में आये किसी पौधे को उखाड़ कर फैंक देते हैं – फूल को तोड़ कर मसल देते हैं – पेड़ की टहनी तोड़ कर हाथ में रख लेते हैं और कुछ दूर जाकर फैंक देते हैं| बहुत-सी महिलाएँ ऐसी होती हैं कि यों ही खड़ी-खड़ी अपने पॉंव के अंगूठे से जमीन कुरेदती रहती हैं| Continue reading “निष्प्रयोजन हिंसा” »

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निर्लिप्तता और स्वावलम्बन

निर्लिप्तता और स्वावलम्बन

पोक्खरपत्तं इव निरुवलेवे,
आगासं चेव निरवलंबे

साधक को कमलपत्र की तरह निर्लेप और आकाश की तरह निरवलम्ब रहना चाहिये

कमल पानी में उत्प होता है और उसीमें रहता है; किन्तु उसके किसी भी पत्ते पर पानी की बूँद नहीं ठहरती, नहीं चिपकती| जिस प्रकार कमलपत्र पानी में रहकर भी पानी से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी संसार में रहते हुए भी उससे सर्वथा निर्लिप्त रहता है – अनासक्त रहता है| Continue reading “निर्लिप्तता और स्वावलम्बन” »

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भगवान सत्य

भगवान सत्य

तं सच्चं भगवं

सत्य ही भगवान है

भगवान, ईश्वर, गॉड, अल्लाह, खुदा आदि परमात्मा के विभिन्न नाम हैं| जगत में परमात्मा ही सर्वोच्च सत्ता पर प्रतिष्ठित है; परन्तु वह परमात्मा कैसा है ? उसका स्वरूप क्या है ? इस विषय में विभिन्न दार्शनिकों के विभिन्न मत हैं| Continue reading “भगवान सत्य” »

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पूछ कर लीजिये

पूछ कर लीजिये

अणुविय गेण्हियव्वं

अनुज्ञा लेकर (ही कोई वस्तु) ग्रहण करनी चाहिये

बिना पूछे किसी की कोई वस्तु उठा लेना और उसका उपयोग कर लेना चोरी का ही एक प्रकार है| कुछ लोग विनोद के लिए मित्र की वस्तु छिपा देते हैं और जब वह उसे परेशान होकर ढूँढने लगता है, तब हँसते हैं और वस्तु लौटा देते हैं| Continue reading “पूछ कर लीजिये” »

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भगवती अहिंसा

भगवती अहिंसा

भगवती अहिंसा…. भीयाणं पि व सरणं

भगवती अहिंसा भीतों (डरे हुओं) के लिए शरण के समान है

भीत अर्थात् संकटग्रस्त डरा हुआ व्यक्ति अपनी सुरक्षा के लिए किसी समर्थ व्यक्ति की शरण ढूँढता है| शरण या आश्रय मिल जाने पर शरणार्थी सन्तुष्ट हो जाता है – निर्भय हो जाता है; वैसे ही भगवती अहिंसा का आश्रय लेने पर भी व्यक्ति सन्तुष्ट एवं निर्भय हो जाता है| Continue reading “भगवती अहिंसा” »

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डरना नहीं चाहिये

डरना नहीं चाहिये

ण भाइयव्वं, भीतं खु भया अइंति लहुयं

डरना नहीं चाहिये| भीत के निकट भय शीघ्र आते हैं

डरता वही है, जो अपराधी है – पापी है – हत्यारा है| चोर और व्यभिचारी भी निरन्तर डरते रहते हैं कि कहीं कभी कोई उन्हें देख न ले – रंगे हाथों चोरी या व्यभिचार करते हुए पकड़ न ले| Continue reading “डरना नहीं चाहिये” »

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हिंसा के कारण

हिंसा के कारण

कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति

क्रुद्धा लुब्ध और मुग्ध हिंसा करते हैं

प्रमादवश प्राणियों के प्राणों को चोट पहुँचाना हिंसा है| हिंसा से सदा दूसरों को दुःख होता है| मनुष्य क्यों दूसरों को दुःख देता है? क्यों हिंसा करता है? इस पर विचार करके ज्ञानियों ने तीन कारण बतलाये हैं| Continue reading “हिंसा के कारण” »

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