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भगवती अहिंसा

भगवती अहिंसा

भगवती अहिंसा…. भीयाणं पि व सरणं

भगवती अहिंसा भीतों (डरे हुओं) के लिए शरण के समान है

भीत अर्थात् संकटग्रस्त डरा हुआ व्यक्ति अपनी सुरक्षा के लिए किसी समर्थ व्यक्ति की शरण ढूँढता है| शरण या आश्रय मिल जाने पर शरणार्थी सन्तुष्ट हो जाता है – निर्भय हो जाता है; वैसे ही भगवती अहिंसा का आश्रय लेने पर भी व्यक्ति सन्तुष्ट एवं निर्भय हो जाता है| Continue reading “भगवती अहिंसा” »

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जीवन की क्षणभुंगरता

जीवन की क्षणभुंगरता

वओ अच्चेति जोव्वणं च

आयु बीत रही है और युवावस्था भी

ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों-त्यों हमारी आयु भी क्रमशः व्यतीत होती जाती है| जब से हमने जन्म लिया है – आँखें खोली हैं, दुनिया देखी है; तभी से हमारी अवस्था एक – एक क्षण घटती जा रही है| लोग समझते हैं कि हम बड़े हो रहे हैं; परन्तु वास्तविकता यह है कि वे छोटे हो रहे हैं| जितने दिन-रात बीतते जाते हैं; उतने निर्धारित आयु में से घटते जाते हैं| इस प्रकार आयुष्य प्रतिक्षण क्षीण से क्षीणतर होता जाता है| Continue reading “जीवन की क्षणभुंगरता” »

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वीर्यको न छिपायें

वीर्यको न छिपायें

नो निह्नवेज्ज वीरियं

वीर्य को छिपाना नहीं चाहिये

जो शक्तिशाली हैं, उन्हें अपनी शक्ति का प्रयोग दूसरों की रक्षा के लिए करना चाहिये|

जो बुद्धिमान हैं, उन्हें अपनी बुद्धि का उपयोग दूसरों के झगड़े मिटाने में करना चाहिये| Continue reading “वीर्यको न छिपायें” »

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मन के जीते जीत

मन के जीते जीत

इमेण चेव जुज्झाहि,
किं ते जुज्झेण बज्झओ ?

आन्तरिक विकारों से ही युद्ध कर, बाह्य युद्ध से तुझे क्या लाभ?

कहावत है :- ‘‘लड़ाई में लड्डू नहीं बँटते !’’ इसका आशय यह है कि युद्ध में लाभ कुछ नहीं होता| दोनों पक्षों को हानि ही उठानी पड़ती है – एक को कुछ अधिक तो एक को कुछ कम| Continue reading “मन के जीते जीत” »

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हाथी और कुन्थु में जीवन

हाथी और कुन्थु में जीवन

हत्थिस्स य कुन्थुस्स य समे चेव जीवे

हाथी और कुन्थु में समान ही जीव होता है

जीव और अजीव – चेतन और जड़ – स्व और पर दोनों अलग-अलग तत्त्व हैं| एक दूसरे का ये आश्रय लेते हैं, परन्तु एक दूसरे के रूप में परिवर्त्तित नहीं होते| जो जीव है वह जीव ही रहेगा व जो अजीव है, वह अजीव ही रहेगा| Continue reading “हाथी और कुन्थु में जीवन” »

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भक्तामर स्तोत्र – श्लोक 1

भक्तामर स्तोत्र   श्लोक 1

भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् |
सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा-
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् || 1 ||

Continue reading “भक्तामर स्तोत्र – श्लोक 1” »

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गुणनाश के कारण

गुणनाश के कारण

चउहिं ठाणेहिं सन्ते गुणे नासेज्जा कोहेणं,
पडिनिवेसेणं, अकयण्णुयाए, मिच्छत्ताभिनिवेसेणं

मनुष्य में विद्यमान गुण भी चार कारणों से नष्ट हो जाते हैं – क्रोध, ईर्ष्या, अकृतज्ञता और मिथ्या आग्रह

कुछ कारण ऐसे हैं, जिनसे प्राप्त गुणों का भी नाश हो जाता है| उनमें से पहला कारण है – क्रोध| इससे व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है – किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है| Continue reading “गुणनाश के कारण” »

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संयम और तप

संयम और तप

संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ

संयम और तप से आत्मा को भावित (पवित्र) करता हुआ साधक विहार करता है

राग-द्वेष, विषय-कषाय से कलुषित आत्मा किसी शरीर का आश्रय लेकर इस विशाल संसार में भटकती रहती है| उसका यह भवभ्रमण तब तक नहीं मिट सकता, जब तक उसका वह कालुष्य नहीं मिट जाता, जो उसे इस प्रकार भटकने को विवश करता रहता है| Continue reading “संयम और तप” »

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मृत्यु का आगमन

मृत्यु का आगमन

नत्थि कालस्स णागमो

मृत्यु किसी भी समय आ सकती है

मृत्यु! कितना भयंकर शब्द है यह? कौन इसे पाना चाहता है? कोई नहीं! घर में किसी की मृत्यु हो जाये तो सारा परिवार शोकसागर में निमग्न हो जाता है| Continue reading “मृत्यु का आगमन” »

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डरना नहीं चाहिये

डरना नहीं चाहिये

ण भाइयव्वं, भीतं खु भया अइंति लहुयं

डरना नहीं चाहिये| भीत के निकट भय शीघ्र आते हैं

डरता वही है, जो अपराधी है – पापी है – हत्यारा है| चोर और व्यभिचारी भी निरन्तर डरते रहते हैं कि कहीं कभी कोई उन्हें देख न ले – रंगे हाथों चोरी या व्यभिचार करते हुए पकड़ न ले| Continue reading “डरना नहीं चाहिये” »

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