1 0 Tag Archives: जैन सूत्र
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क्रोध न करें

क्रोध न करें

वुच्चमाणो न संजले

साधक को कोई यदि दुर्वचन कहे; तो भी वह उस पर क्रोध न करे

मनुष्य से जाने-अनजाने भूलें होती ही रहती हैं| अपनी भूलें स्वयं अपने को मालूम नहीं होतीं; इसीलिए “गुरुदेव” की जीवन में आवश्यकता होती है| वे दयावश हमें सुधारने के लिए हमारी भूलें बताते हैं| यदि हम उनके निर्देश के अनुसार विनयपूर्वक एक-एक भूल को सुधारते रहें; तो क्रमशः हमारा जीवन शुद्ध से शुद्धतर होता चला जाये| Continue reading “क्रोध न करें” »

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सम्यग्दर्शी

सम्यग्दर्शी

सम्मत्तदंसी न करेइ पावं

सम्यग्दर्शी पाप नहीं करता

जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष – ये नौ ‘तत्त्व’ हैं| इनका स्वरूप अर्थ है| तत्त्व और अर्थ पर श्रद्धा रखना ही सम्यग्दर्शन है; क्यों कि जो साधक तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को समझ लेता है, उसका उनके प्रति विश्‍वास हो ही जाता है| Continue reading “सम्यग्दर्शी” »

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शंका हो तो न बोलें

शंका हो तो न बोलें

जत्थ संका भवे तं तु,
एवमेयं ति नो वए

जिस विषय में अपने को शंका हो, उस विषय में ‘‘यह ऐसी ही है’’ ऐसी भाषा न बोलें

शंका एक ऐसी मनोवृत्ति है, जो हमें अपने अल्पज्ञान या अज्ञान का भान कराती रहती है| अज्ञान के भान से हमें लज्जा आती है और एक प्रकार का मानसिक कष्ट होता है| शास्त्रज्ञान के लिए जब हम आचार्यों या गुरुओं की उपासना करते हैं; तब भी उनके कठोर शब्दों का प्रहार हमें सहना पड़ता है| Continue reading “शंका हो तो न बोलें” »

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निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु

निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु

सारदसलिलं इव सुद्धहियया,
विहग इव विप्पमुक्का,
वसुंधरा इव सव्वफासविसहा

मुनियों का हृदय शरद्कालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है| वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख-दुःखों को समभाव से सहन करने वाले होते हैं

बरसातके दिनों में नदी का जो पानी चाय या कॉफी की तरह मिट्टी के मिश्रण से लाल या काला दिखाई देता है, वही शरद्काल में निर्मल हो जाता है| मुनिजनों का हृदय भी वैसा ही निर्मल होता है| उसमें विषय कषाय की मलिनता का अभाव होता है| Continue reading “निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु” »

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सो क्या जाने पीर पराई ?

सो क्या जाने पीर पराई ?

जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ|
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ|

जो अभ्यन्तर को जानता है, वह बाह्य को जानता है और जो बाह्य को जानता है वह अभ्यन्तर को जानता है

जो अपने सुख-दुःख को समझता है, वही व्यक्ति दूसरों के दुःख-सुख को समझ सकता है- यह एक अनुभूत तथ्य है| जिसे कभी भूखा या प्यासा रहने का अवसर ही न मिला हो, वह कैसे समझ सकता है कि भूख-प्यास में किसी को कितना कष्ट होता है? Continue reading “सो क्या जाने पीर पराई ?” »

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मृदुता को अपनाइये

मृदुता को अपनाइये

माणं मद्दवया जिणे

मान को नम्रता या मृदुता से जीतें

आँधी बड़े-बड़े पेडों को उखाड़ फैंकती है; किंतु मैदान में फैली हुई दूब का कुछ नहीं बिगाड़ सकती| ऐसा क्यों? पेड़ घमण्ड से अकड़े हुए रहते हैं, किंतु दूब में नम्रता होती है अर्थात् मृदुता होती है| अकड़ से पेड़ उखड़ जाते हैं, नम्रता से दूब टिकी रहती है| वह अभिमानी व्यक्तियों का मार्गदर्शन करती है कि उन्हें कैसा व्यवहार करना चाहिये| Continue reading “मृदुता को अपनाइये” »

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मित्र-शत्रु कौन ?

मित्र शत्रु कौन ?

अप्पा मित्तममित्तं य, सुप्पट्ठियदुप्पट्ठियो

सदाचार-प्रवृत्त आत्मा मित्र है और दुराचारप्रवृत शत्रु

अपनी आत्मा ही मित्र है – यदि वह सुप्रवृत्त हो अर्थात् सदाचारनिष्ठ हो और अपनी आत्मा ही शत्रु है – यदि वह दुष्प्रवृत्त हो अर्थात् दुराचारनिष्ठ हो| Continue reading “मित्र-शत्रु कौन ?” »

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बुद्धिवाद

बुद्धिवाद

पा समिक्खए धम्मं

बुद्धि ही धर्म का निर्णय कर सकती है

महावीर ही थे, जिन्होंने ढाई-हजार वर्ष पहले इस सूक्ति के द्वारा बुद्धिप्रामाण्यवादका डिण्डिम घोष किया था| Continue reading “बुद्धिवाद” »

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अमनोज्ञ शब्द न बोलें

अमनोज्ञ शब्द न बोलें

तुमं तुमं ति अमणुं, सव्वसो तं न वत्तए

तू, तुम जैसे अमनोहर शब्द कभी नहीं बोलें

मॉं को और ईश्‍वर को ‘तू’ कहा जाता है, शेष सबको ‘आप’ कहना चाहिये| ‘आप’ शब्द सन्मान दर्शक है| दूसरों से बातचीत करते समय अथवा पत्र व्यवहार में इसी शब्द का प्रयोग करना चाहिये| यदि हम दूसरों के लिए ‘आप’ शब्द का प्रयोग करेंगे; तो दूसरे भी हमारे लिए ‘आप’ शब्द का प्रयोग करके हमें सन्मान देंगे| Continue reading “अमनोज्ञ शब्द न बोलें” »

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कामासक्ति

कामासक्ति

कामेसु गिद्धा निचयं करेन्ति

कामभोगों में आसक्त रहनेवाले व्यक्ति कर्मों का बन्धन करते हैं

पॉंच इन्द्रियों में से चक्षुइन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय अर्थात् आँख और कान के विषय ‘काम’ कहलाते हैं – जैसे सुन्दर चित्र, नाटक, सिनेमा, मनोहर दृश्य, नृत्य आदि आँख के विषय हैं और श्रृङ्गाररस की कथाएँ या कविताएँ, फिल्मी गाने, विविध वाद्य, अपनी प्रशंसा, स्त्रियों या पुरुषों का मधुरस्वर, (स्त्रियों के लिए पुरुषों की और पुरुषों के लिए स्त्रियों की मीठी-मीठी बातें) आदि चक्षु एवं कान के विषय हैं| Continue reading “कामासक्ति” »

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