हे राजन्! बुढ़ापा मनुष्य के सौन्दर्य को नष्ट कर देता है
सौन्दर्य का नाश
वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं
शैशव अवस्था में व्यक्ति कितना सुन्दर दिखाई देता है? न दाढ़ी, न मूँछ, न चिन्ता, न शोक, न क्रूरता, न भय, न कपट, न अहंकार! सीधा और सरल व्यवहार! हँसमुख चेहरा और मांसल देह! क्षणभर में रोना और क्षणभर में हँसना| Continue reading “सौन्दर्य का नाश” »
न भाषा न पांडित्य
न चित्ता तायए भासा
कुओ विज्जाणुसासणं
कुओ विज्जाणुसासणं
विचित्र (लच्छेदार) भाषाएँ भी (दुराचारी की दुर्गति से) रक्षा नहीं कर सकतीं, फिर विद्यानुशासन (पाण्डित्य) की तो बात ही क्या?
झुँझलायें नहीं
थोवं लद्धुं न खिंसए
थोड़ा मिलने पर झुँझलाएँ नहीं
क्रोध न करें
वुच्चमाणो न संजले
साधक को कोई यदि दुर्वचन कहे; तो भी वह उस पर क्रोध न करे
सम्यग्दर्शी
सम्मत्तदंसी न करेइ पावं
सम्यग्दर्शी पाप नहीं करता
शंका हो तो न बोलें
जत्थ संका भवे तं तु,
एवमेयं ति नो वए
एवमेयं ति नो वए
जिस विषय में अपने को शंका हो, उस विषय में ‘‘यह ऐसी ही है’’ ऐसी भाषा न बोलें
निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु
सारदसलिलं इव सुद्धहियया,
विहग इव विप्पमुक्का,
वसुंधरा इव सव्वफासविसहा
विहग इव विप्पमुक्का,
वसुंधरा इव सव्वफासविसहा
मुनियों का हृदय शरद्कालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है| वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख-दुःखों को समभाव से सहन करने वाले होते हैं
सो क्या जाने पीर पराई ?
जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ|
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ|
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ|
जो अभ्यन्तर को जानता है, वह बाह्य को जानता है और जो बाह्य को जानता है वह अभ्यन्तर को जानता है
मृदुता को अपनाइये
माणं मद्दवया जिणे
मान को नम्रता या मृदुता से जीतें
मित्र-शत्रु कौन ?
अप्पा मित्तममित्तं य, सुप्पट्ठियदुप्पट्ठियो
सदाचार-प्रवृत्त आत्मा मित्र है और दुराचारप्रवृत शत्रु