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परिवार की दृष्टि से न गिरो

परिवार की दृष्टि से न गिरो
कई बेसमझ अज्ञान महिलाएँ अपने भर्तार और घर की आय-व्यय का विचार न कर, वे विशेष वस्त्रालंकार श्रृंगार की वस्तुओं के लिये मरती हैं, कलह कर बैठती हैं| इसी मनमुटाव के कारण वे शनै: शनै: अपने परिवार और समाज की दृष्टि से गिर जाती हैं| Continue reading “परिवार की दृष्टि से न गिरो” »

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सम्प्रति महाराज

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Quote #2

The reward of our work is not what we get, but what we become.
Unknown
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शंका हो तो न बोलें

शंका हो तो न बोलें

जत्थ संका भवे तं तु,
एवमेयं ति नो वए

जिस विषय में अपने को शंका हो, उस विषय में ‘‘यह ऐसी ही है’’ ऐसी भाषा न बोलें

शंका एक ऐसी मनोवृत्ति है, जो हमें अपने अल्पज्ञान या अज्ञान का भान कराती रहती है| अज्ञान के भान से हमें लज्जा आती है और एक प्रकार का मानसिक कष्ट होता है| शास्त्रज्ञान के लिए जब हम आचार्यों या गुरुओं की उपासना करते हैं; तब भी उनके कठोर शब्दों का प्रहार हमें सहना पड़ता है| Continue reading “शंका हो तो न बोलें” »

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Motivational Wallpaper #51

धीरज सारे आनन्दों और शक्तियों का मूल है

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निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु

निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु

सारदसलिलं इव सुद्धहियया,
विहग इव विप्पमुक्का,
वसुंधरा इव सव्वफासविसहा

मुनियों का हृदय शरद्कालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है| वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख-दुःखों को समभाव से सहन करने वाले होते हैं

बरसातके दिनों में नदी का जो पानी चाय या कॉफी की तरह मिट्टी के मिश्रण से लाल या काला दिखाई देता है, वही शरद्काल में निर्मल हो जाता है| मुनिजनों का हृदय भी वैसा ही निर्मल होता है| उसमें विषय कषाय की मलिनता का अभाव होता है| Continue reading “निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु” »

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सो क्या जाने पीर पराई ?

सो क्या जाने पीर पराई ?

जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ|
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ|

जो अभ्यन्तर को जानता है, वह बाह्य को जानता है और जो बाह्य को जानता है वह अभ्यन्तर को जानता है

जो अपने सुख-दुःख को समझता है, वही व्यक्ति दूसरों के दुःख-सुख को समझ सकता है- यह एक अनुभूत तथ्य है| जिसे कभी भूखा या प्यासा रहने का अवसर ही न मिला हो, वह कैसे समझ सकता है कि भूख-प्यास में किसी को कितना कष्ट होता है? Continue reading “सो क्या जाने पीर पराई ?” »

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मृदुता को अपनाइये

मृदुता को अपनाइये

माणं मद्दवया जिणे

मान को नम्रता या मृदुता से जीतें

आँधी बड़े-बड़े पेडों को उखाड़ फैंकती है; किंतु मैदान में फैली हुई दूब का कुछ नहीं बिगाड़ सकती| ऐसा क्यों? पेड़ घमण्ड से अकड़े हुए रहते हैं, किंतु दूब में नम्रता होती है अर्थात् मृदुता होती है| अकड़ से पेड़ उखड़ जाते हैं, नम्रता से दूब टिकी रहती है| वह अभिमानी व्यक्तियों का मार्गदर्शन करती है कि उन्हें कैसा व्यवहार करना चाहिये| Continue reading “मृदुता को अपनाइये” »

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मित्र-शत्रु कौन ?

मित्र शत्रु कौन ?

अप्पा मित्तममित्तं य, सुप्पट्ठियदुप्पट्ठियो

सदाचार-प्रवृत्त आत्मा मित्र है और दुराचारप्रवृत शत्रु

अपनी आत्मा ही मित्र है – यदि वह सुप्रवृत्त हो अर्थात् सदाचारनिष्ठ हो और अपनी आत्मा ही शत्रु है – यदि वह दुष्प्रवृत्त हो अर्थात् दुराचारनिष्ठ हो| Continue reading “मित्र-शत्रु कौन ?” »

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बुद्धिवाद

बुद्धिवाद

पा समिक्खए धम्मं

बुद्धि ही धर्म का निर्णय कर सकती है

महावीर ही थे, जिन्होंने ढाई-हजार वर्ष पहले इस सूक्ति के द्वारा बुद्धिप्रामाण्यवादका डिण्डिम घोष किया था| Continue reading “बुद्धिवाद” »

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