जो अनन्यदर्शी होता है, वह अनन्याराम होता है और जो अनन्याराम होता है, वह अनन्यदर्शी होता है
अनन्यदर्शी बनें
Helping others is the true celebration
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साधु-संतों का विनय करो
एकज्ञ-सर्वज्ञ
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ||
जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है
जिसे आत्मस्वरूप का सम्यग्ज्ञान हो जाता है, वह अनात्मतत्त्वों में रमण नहीं करता; क्यों कि वह आत्मभि पदार्थों के स्वरूप को – उनकी क्षणिकताको भी जान लेता है| Continue reading “एकज्ञ-सर्वज्ञ” »
क्षमा-प्रदान करते समय
सिकंदरने युद्धमें पौरस को हराकर बंदी बनाया| पौरसको सिकंदर के सामने लाया गया| तब सिकंदरने पौरस को कहा- ‘‘कहो ! आपके साथ कैसा व्यवहार करें?’’ तब पौरसने निर्भयता से कहा कि एक राजा का दूसरे राजा के साथ जैसा व्यवहार होना चाहिए, ठीक वैसा ही व्यवहार कीजिए| सिकंदर इस जवाब से प्रसन्न हो गया|
क्षमा-याचना करने वाली दोषित व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ? इस प्रश्न का जवाब यह है कि स्वयंको दोषित समजनेवाला जिस तरह व्यवहार करता है, ठीक उसी तरह व्यवहार करना चाहिए| तात्पर्य यह है कि स्वयंको दोषित माननेवाला ही अन्य के दोषको मामूली समजकर सरलतासे, सहजतासे क्षमा प्रदान कर सकता है| Continue reading “क्षमा-प्रदान करते समय” »
कार्तिक पूनम के सिद्धाचलजी के 21 खमासमणा
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क्षमा कैसे रखनी चाहिए?
महत्वपूर्ण बात यह है कि अनचाही-अप्रिय घटना घटें तब क्षमा कैसे रखें ? ऐसे समय पर क्षमा न रख सके और गुस्सा आ गया, मन बेकाबू हो गया और क्रोध में अंधा बनकर कुछ ऐसे गलत कदम उठा लिये कि जिससे होनेवाला नुकसान जीवनभरमें भरपाई न कर सकें और क्षमा मांगने-देने का मौका भी न आये| या तो क्षमा मांगने-देने पर भी वह नुकसान भरपाई न कर सके तो जीवनभर पछताना पड़ेगा|
इसलिए ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे प्रसंग पर क्रोध उत्पन्न ही न हो या तो उत्पन्न हुए क्रोध को निष्फल कर दो | क्योंकि क्रोध एक ऐसा पागलपन है कि क्रोधित व्यक्ति का हर कदम उसे नुकसान के मार्ग पर ही आगे ले जायेगा| Continue reading “क्षमा कैसे रखनी चाहिए?” »
भविष्य की मनोव्यथा
गुरुदेव! मुझे जब अपने जीवन की काली किताब याद आती है, तब रोंगटे खड़े हो जाते हैं| अरे जीव! तेरा क्या होगा? कण जितने सुख के लिए मण जितने पाप किये हैं, उनसे टन जितना दुःख आएगा, उन्हें तू किस तरह सहन करेगा? गुरुदेव, जरा-सी गर्मी पड़ती है, तो आकुल-व्याकुल होकर पंखे या एयरकंडिशन की हवा खाने के लिये दौड़ता हूँ, तो फिर नरक की भयंकर भट्ठियों की असह्य गर्मी को कैसे बर्दाश्त करूँगा? जहॉं लोहा क्षणभर में पिघल कर पानी जैसा प्रवाही बन जाता है, परमाधामी भट्ठी के ऊपर मुझे भुट्टे की तरह सेकेंगे, तब गर्मी कैसे सहन कर सकूँगा? तड़प-तड़प कर आकुल-व्याकुल बने मन को आश्वासन देनेवाले वचनों के बदले परमाधामी के कड़वे वचन सहन करने पड़ेंगे, ‘‘ले, अब कर मज़ा|’’ Continue reading “भविष्य की मनोव्यथा” »
सम्यक्त्व के अभाव में
सम्यक्त्व के अभाव में चारित्र नहीं हो सकता