इहलोगे सुचिण्णा कम्मा परलोगे
सुहफल विवाग संजुत्ता भवन्ति
सुहफल विवाग संजुत्ता भवन्ति
इस लोक में किये हुए सत्कर्म परलोक में सुखप्रद होते हैं
इस लोक में किये हुए सत्कर्म परलोक में सुखप्रद होते हैं
जो इंगिताकार से स्वीकार करता है वह पूज्य बनता है
बिना पूछे किसी बोलने वाले के बीच में नहीं बोलना चाहिये
मान विनय का नाशक है
जो श्रेय (हितकर) हो, उसीका आचरण करना चाहिये
जो परिग्रह में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते हैं
प्रमत्त मनुष्य धन के द्वारा न इस लोक में अपनी रक्षा कर सकता है, न परलोक में ही
यदि जलस्पर्श (स्नान) से ही सिद्धि प्राप्त होती तो बहुत-से जलजीव सिद्ध हो जाते
समय पर समयोचित कार्य करना चाहिये
तपविशेष तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, परन्तु कोई जातिविशेष नहीं दिखाई देता