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मृत्यु का आगमन

मृत्यु का आगमन

नत्थि कालस्स णागमो

मृत्यु किसी भी समय आ सकती है

मृत्यु! कितना भयंकर शब्द है यह? कौन इसे पाना चाहता है? कोई नहीं! घर में किसी की मृत्यु हो जाये तो सारा परिवार शोकसागर में निमग्न हो जाता है| Continue reading “मृत्यु का आगमन” »

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डरना नहीं चाहिये

डरना नहीं चाहिये

ण भाइयव्वं, भीतं खु भया अइंति लहुयं

डरना नहीं चाहिये| भीत के निकट भय शीघ्र आते हैं

डरता वही है, जो अपराधी है – पापी है – हत्यारा है| चोर और व्यभिचारी भी निरन्तर डरते रहते हैं कि कहीं कभी कोई उन्हें देख न ले – रंगे हाथों चोरी या व्यभिचार करते हुए पकड़ न ले| Continue reading “डरना नहीं चाहिये” »

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दुःख कोई बाँट नही सकता

दुःख कोई बाँट नही सकता

अस्स दुक्खं ओ न परियाइयति

कोई किसी दूसरे के दुःख को बाँट नहीं सकता

मनुष्य दुःखी इसलिए होता है कि वह प्रमादवश भूलें करता रहता है| दुःख भूलों का अनिवार्य परिणाम है| जो भूलें करेगा, वह इस परिणाम से नहीं बच सकेगा| Continue reading “दुःख कोई बाँट नही सकता” »

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परिहास न करें

परिहास न करें

न यावि पे परिहास कुज्जा

बुद्धिमान को कभी उपहास नहीं करना चाहिये

रोग की जड़ खॉंसी! झगड़े की जड़ हँसी!! यदि द्रौपदी ने हँसी उड़ाते हुए दुर्योधन के लिए ऐसा नहीं कहा होता कि अन्धे के बेटे भी आखिर अन्धे ही होते हैं; तो शायद इतना बड़ा महाभारत युद्ध न हुआ होता| Continue reading “परिहास न करें” »

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जीव विचार – गाथा 2

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उत्तम शरण

उत्तम शरण

धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं

धर्म द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और उत्तम शरण है

समुद्र में तैरते हुए जो व्यक्ति थक कर चूर हो जाता है, उसे द्वीप मिल जाये तो कितना सुख मिलेगा उससे ? धर्म भी संसार रूप सागर में तैरते हुए जीवों के लिए द्वीप के समान सुखदायक है| Continue reading “उत्तम शरण” »

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प्रियकर प्रियवादी

प्रियकर प्रियवादी

पियंकरे पियंवाइ, से सिक्खं लद्धुमरिहइ

प्रिय करनेवाला और प्रिय बोलनेवाला अपनी शिक्षा प्राप्त करने में समर्थ होता है

यदि कोई पशु या पक्षी प्यासा हो; तो उसे किसी जलाशय (सरिता, सरोवर, नाला आदि) के निकट जाना होगा| उसी प्रकार जिज्ञासु शिष्य को भी किसी गुरु के निकट जाना पड़ेगा; लेकिन ज्ञान की प्राप्ति के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है| Continue reading “प्रियकर प्रियवादी” »

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अनाथ नाथ नहीं हो सकता

अनाथ नाथ नहीं हो सकता

अप्पणा अनाहो सन्तो,
कहं नाहो भविस्ससि?

तू स्वयं अनाथ है, तो फिर तू दूसरे का नाथ कैसे हो सकता है ?

यदि कोई यह समझता है कि मैं किसीका रक्षक हूँ – पालक हूँ – नाथ हूँ, तो यह उसका भ्रम है, क्योंकि इस दुनिया में कोई व्यक्ति किसीकी रक्षा या नाश नहीं कर सकता| व्यक्ति के अपने पूर्वार्जित शुभाशुभ कर्म ही उसका रक्षण और विनाश करते हैं| Continue reading “अनाथ नाथ नहीं हो सकता” »

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धन हो या न हो

धन हो या न हो

धणेण किं धम्मधुराहिगारे ?

धर्मधुरा खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है? वहॉं तो सदाचार ही आवश्यक है

मनुष्य धन से धर्म अर्थात् परोपकार कर सकता है; परन्तु धर्म के लिए धन अनिवार्य नहीं है| साधु-सन्त गृहत्यागी होते हैं| उनके पास धन नहीं होता; फिर भी वे धर्मात्मा होते हैं| इतना ही क्यों ? वे धर्मप्रचारक होते हैं – धर्मोपदेशक होते हैं | तन-मन-जीवन को दूसरों की सेवा-सहायता में लगाना धर्म के लिए अनिवार्य हो सकता है, धन नहीं| Continue reading “धन हो या न हो” »

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दुष्कर कुछ नहीं

दुष्कर कुछ नहीं

इह लोए निप्पिवासस्स,
नत्थि किंचि वि दुक्करं

इस संसार में जो निःस्पृह है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है

इस संसार में सबसे बड़ी बाधा अपनी आसक्ति है – स्पृहा है – इच्छा है – वासना है | जो अनासक्त नहीं है, वह अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता – जो स्वार्थी है, वह परोपकार या परमार्थ नहीं कर सकता| Continue reading “दुष्कर कुछ नहीं” »

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