राढामणी वेरुलियप्पगासे,
अमहग्घए होइ हु जाणएसु
अमहग्घए होइ हु जाणएसु
वैडूर्यरत्न के समान चमकने वाले काच के टुकडे का, जानकारों के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं है
वैडूर्यरत्न के समान चमकने वाले काच के टुकडे का, जानकारों के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं है
मुनि कभी मर्यादा से अधिक न हँसे
सन्मार्ग का तिरस्कार करके अल्प सुख (विषयसुख) के लिए अनन्त सुख (मोक्षसुख) का विनाश मत कीजिये
भोगी संसार में भटकता है और अभोगी मुक्त हो जाता है
धीर पुरुष क्रिया में रुचिवाला होता है
जिसके आगे-पीछे न हो, उसके बीच में भी कैसे होगा?
आत्महितैषी साधक अपने को विनय में स्थिर करे
हे पुरुष ! तू स्वयं ही अपना मित्र है| अन्य बाहर के मित्रों की चाह क्यों रखता है ?
सांसारिक जीव क्रमशः शुद्ध होते हुए मनुष्यभव पाते हैं
साधक को कमलपत्र की तरह निर्लेप और आकाश की तरह निरवलम्ब रहना चाहिये