1 0 Tag Archives: जैन मान्यता
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उत्तम शरण

उत्तम शरण

धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं

धर्म द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और उत्तम शरण है

समुद्र में तैरते हुए जो व्यक्ति थक कर चूर हो जाता है, उसे द्वीप मिल जाये तो कितना सुख मिलेगा उससे ? धर्म भी संसार रूप सागर में तैरते हुए जीवों के लिए द्वीप के समान सुखदायक है| Continue reading “उत्तम शरण” »

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प्रियकर प्रियवादी

प्रियकर प्रियवादी

पियंकरे पियंवाइ, से सिक्खं लद्धुमरिहइ

प्रिय करनेवाला और प्रिय बोलनेवाला अपनी शिक्षा प्राप्त करने में समर्थ होता है

यदि कोई पशु या पक्षी प्यासा हो; तो उसे किसी जलाशय (सरिता, सरोवर, नाला आदि) के निकट जाना होगा| उसी प्रकार जिज्ञासु शिष्य को भी किसी गुरु के निकट जाना पड़ेगा; लेकिन ज्ञान की प्राप्ति के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है| Continue reading “प्रियकर प्रियवादी” »

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अनाथ नाथ नहीं हो सकता

अनाथ नाथ नहीं हो सकता

अप्पणा अनाहो सन्तो,
कहं नाहो भविस्ससि?

तू स्वयं अनाथ है, तो फिर तू दूसरे का नाथ कैसे हो सकता है ?

यदि कोई यह समझता है कि मैं किसीका रक्षक हूँ – पालक हूँ – नाथ हूँ, तो यह उसका भ्रम है, क्योंकि इस दुनिया में कोई व्यक्ति किसीकी रक्षा या नाश नहीं कर सकता| व्यक्ति के अपने पूर्वार्जित शुभाशुभ कर्म ही उसका रक्षण और विनाश करते हैं| Continue reading “अनाथ नाथ नहीं हो सकता” »

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धन हो या न हो

धन हो या न हो

धणेण किं धम्मधुराहिगारे ?

धर्मधुरा खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है? वहॉं तो सदाचार ही आवश्यक है

मनुष्य धन से धर्म अर्थात् परोपकार कर सकता है; परन्तु धर्म के लिए धन अनिवार्य नहीं है| साधु-सन्त गृहत्यागी होते हैं| उनके पास धन नहीं होता; फिर भी वे धर्मात्मा होते हैं| इतना ही क्यों ? वे धर्मप्रचारक होते हैं – धर्मोपदेशक होते हैं | तन-मन-जीवन को दूसरों की सेवा-सहायता में लगाना धर्म के लिए अनिवार्य हो सकता है, धन नहीं| Continue reading “धन हो या न हो” »

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दुष्कर कुछ नहीं

दुष्कर कुछ नहीं

इह लोए निप्पिवासस्स,
नत्थि किंचि वि दुक्करं

इस संसार में जो निःस्पृह है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है

इस संसार में सबसे बड़ी बाधा अपनी आसक्ति है – स्पृहा है – इच्छा है – वासना है | जो अनासक्त नहीं है, वह अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता – जो स्वार्थी है, वह परोपकार या परमार्थ नहीं कर सकता| Continue reading “दुष्कर कुछ नहीं” »

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दुर्गति की दिशा में

दुर्गति की दिशा में

आसुरीयं दिसं बाला, गच्छंति अवसा तमं

अज्ञ जीव विवश होकर अन्धकाराच्छदन
आसुरी गति को प्राप्त होते हैं

जिनमें सम्यग्बोध नहीं है, वे गुलाम बन जाते हैं और फलस्वरूप दुर्गति को प्राप्त होते हैं| Continue reading “दुर्गति की दिशा में” »

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बात लम्बी न करें

बात लम्बी न करें

निरुद्धगं वा वि न दीहइज्जा

थोड़े में कही जानेवाली बात को व्यर्थ ही लम्बी न करें

बुद्धिमान लोग सदा अपनी बात को नपे-तुले शब्दों में प्रस्तुत करते हैं| वे आवश्यक वाणी का ही प्रयोग करते हैं| वाणी का अनावश्यक विस्तार करके अपना और दूसरों का बहुमूल्य समय नष्ट करना वे उचित नहीं समझते| Continue reading “बात लम्बी न करें” »

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सोचकर बोलें

सोचकर बोलें

अणुचिंतिय वियागरे

सोचकर बोलें

इस दुनिया में मौन रहने से काम नहीं चल सकता| व्यवहार के लिए कुछ-न-कुछ सबको बोलना पड़ता है| पशु पक्षी भी बोलते हैं| उनकी भाषा अलग होती है, संकेत अलग होते हैं; जिनके माध्यम से वे अपनी भावनाओं को प्रकट करते हैं – आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति करते हैं| Continue reading “सोचकर बोलें” »

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क्रोध का नाश

क्रोध का नाश

उवसमेण हणे कोहं

क्रोध को शान्ति से नष्ट करें

क्रोध को क्रोध से नष्ट नहीं किया जा सकता| आग को आग से कैसे बुझाया जा सकता है ? आग को बुझाने के लिए जल चाहिये | इसी प्रकार क्रोध को नष्ट करने के लिए शान्ति चाहिये| Continue reading “क्रोध का नाश” »

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लोभ को छोड़िये

लोभ को छोड़िये

लोभमलोभेण दुगंछमाणे
लद्धे कामे नाभिगाहइ

लोभ को अलोभ से तिरस्कृत करनेवाला साधक प्राप्त कामों का भी सेवन नहीं करता

लोभ एक कषाय है| वह क्रोध, अभिमान और माया की तरह आत्मा को कलुषित करता है – उसकी साधना में बाधक बनता है| जैसे अन्य कषाय आत्म-शुद्धि के लिए त्याज्य हैं, वैसे ही लोभ भी त्याज्य है| Continue reading “लोभ को छोड़िये” »

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