धर्म के दो रूप हैं – श्रुतधर्म (तत्त्वज्ञान) और चारित्रधर्म (नैतिकता)
श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म
दुविहे धम्मे-सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव
जब कोई मॉं यह चिल्लाती है – शिकायत करती है कि बेटा मेरी सुनता ही नहीं है तो क्या वह बेटे के बहरेपन का रोना रोती है? क्या उस पुत्र के कान नहीं है? क्या उसके कानों में सुनने की शक्ति नहीं है? Continue reading “श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म” »
गुणाकांक्षा
कङ्खे गुणे जाव सरीरभेऊ
जब तक शरीरभंग (मृत्यु) न हो तब तक गुणाकांक्षा रहनी चाहिये
विषयों की तो सभी प्राणी कामना करते रहते हैं; किंतु विवेकी व्यक्ति गुणों की कामना करते हैं| Continue reading “गुणाकांक्षा” »
खून का दाग खून से नहीं धुलता
रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव
पक्खालिज्जमाणस्स णत्थि सोही
पक्खालिज्जमाणस्स णत्थि सोही
रक्त-सना वस्त्र रक्त से ही धोया जाये तो वह शुद्ध नहीं होता
धर्माचार्य को वन्दन
जत्थेव धम्मायरियं पासेज्जा,
तत्थेव वंदिज्जा नमंसिज्जा
तत्थेव वंदिज्जा नमंसिज्जा
जहॉं कहीं भी धर्माचार्य दिखाई दें, वहीं उन्हे वन्दना नमस्कार करना चाहिये
ममता का बन्धन
ममत्तं छिंदए ताए, महानागोव्व कंचुयं
आत्मसाधक ममत्व के बन्धन को तोड़ फेंके; जैसे महानाग कञ्चुक को उतार देता है
चक्षु चाहिये
सूरोदये पासति चक्खुणेव
सूर्य के उदय होने पर भी आँख से ही देखा जा सकता है
कामासक्ति को छोड़िये
कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं
निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि दुःख कामासक्ति से उत्प होता है
भवतृष्णा का त्याग
भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया
संसार की तृष्णा भयंकर फल देनेवाली एक भयंकर लता है
कृत – अकृत
कडं कडेत्ति भासेज्जा, अकडं नो कडेत्ति य
किये हुए को कृत और न किये हुए को अकृत कहना चाहिये
कल्याणकारिणी
अहिंसा तसथावरसव्वभूयखेमंकरी
अहिंसा त्रस एवं स्थावर समस्त भूतों (प्राणियों) का कल्याण करनेवाली है