कहं नाहो भविस्ससि?
तू स्वयं अनाथ है, तो फिर तू दूसरे का नाथ कैसे हो सकता है ?
फिर जो व्यक्ति जेल की कोठरी में स्वयं बन्द है, वह दूसरे बन्दियों को नहीं छुड़ा सकता| जो स्वयं भूखा है, वह दूसरों की भूख कैसे मिटा सकता है ? जो स्वयं कर्मों के बन्धन में जकड़ा हुआ संसार में भटक रहा है, वह दूसरों को बन्धन-मुक्त कैसे कर सकता है ? जो स्वयं असुरक्षित है, वह दूसरों का रक्षक कैसे हो सकता है?
प्रत्येक सांसारिक प्राणी के पीछे जन्म-जरा-मृत्यु का चक्कर लगा हुआ है, इसलिए दूसरों को वह इस चक्कर से कैसे बचा सकता है ?
शुभाशुभ कर्मों से लिपटी हुई प्रत्येक आत्मा अपनी अपनी आधि-व्याधि-उपाधियों से बँधी हुई है| ऐसी अवस्था में दूसरों को वह मुक्त कैसे कर सकती है ?
ठीक ही कहा गया है कि जब कोई स्वयं अनाथ हो, तब वह दूसरों का नाथ नहीं हो सकता|
- उत्तराध्ययन सूत्र 20/12
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