अज्ञ जीव विवश होकर अन्धकाराच्छदन
आसुरी गति को प्राप्त होते हैं
कर्म व्यक्ति के हाथ में है अर्थात् वह कर्म करने में स्वतन्त्र है; परन्तु कर्मों का फल भोगने में वह परतन्त्र है| जब तक जीव अपने शुभाशुभ कर्मों का शुभाशुभ फल भोग नहीं लेता; तब तक उसकी मुक्ति नहीं हो सकती|
मुक्ति के लिए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष-इन सभी नव तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है| जिसे यह ज्ञान हो जाता है, वही यह समझ सकता है कि आत्मा ही सर्व श्रेष्ठ तत्त्व है| वही चेतनामय है – ज्ञानमय है – भावनामय है – चारित्रमय है – स्वतंत्र है| वह यह भी जान लेता है कि कर्म जड़ हैं – ज्ञानहीन हैं – भावनाहीन हैं – चारित्रहीन हैं और वे आत्मा के ज्ञान दर्शन चरित्र में बाधक हैं| इस प्रकार आत्मा के चैतन्य और कर्मों के जड़त्व का ज्ञान उसे सद्गति (मोक्ष) की ओर प्रेरित करता है| इसके विपरीत अज्ञ जीव विवशतापूर्वक दुर्गति की दिशा में बढ़ते रहते हैं|
- उत्तराध्ययन सूत्र 7/10
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