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यथावादी तथाकारी

यथावादी तथाकारी

करणसच्चे वट्टमाणे जीवे
जहावाई तहाकारी या वि भवइ

करणसत्य में रहनेवाला जीव जैसा बोलता है, वैसा ही करता है

जो कभी पाप न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है और न किसी पापी के कार्यों का अनुमोदन ही करता है, वह करण सत्य में रहनेवाला जीव है| ऐसे सज्जन व्यक्ति का व्यवहार शुद्ध और सच्चा होता है| उसके मन-वचन और काया के व्यापारों में एकता होती है| Continue reading “यथावादी तथाकारी” »

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स्नेह और तृष्णा

स्नेह और तृष्णा

वीयरागयाएणं नेहाणुबंधणाणि,
तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिन्दइ

वीतरागता से स्नेह औ तृष्णा के बन्धन कट जाते हैं

द्वेष दुर्गुण है – त्याज्य है| द्वेष का विरोधी राग है; फिर भी राग एक दुर्गुण है और वह भी द्वेष की तरह ही त्याज्य है| Continue reading “स्नेह और तृष्णा” »

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लाभ और लोभ

लाभ और लोभ

जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ

ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों त्यों लोभ होता है और लाभ से लोभ बढ़ता रहता है

स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रत्येक संसारी जीव निरन्तर प्रयत्न करता रहता है| इस प्रयत्न में कभी उसे सफलता प्राप्त होती है और कभी विफलता|

सफलता से उत्साह बढ़ता है और विफलता से वह नष्ट हो जाता है| Continue reading “लाभ और लोभ” »

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सच्ची शिक्षा

सच्ची शिक्षा

अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा,
निरट्ठाणि उवज्जए

निरर्थक शिक्षा छोड़कर सार्थक शिक्षा ही ग्रहण करें

कुछ विचारकों का मत है कि कला, कला के लिए है और कुछ कला को कल्याण के लिए मानते हैं| पहले विचारकों के अनुसार कला का कोई उद्देश्य होने पर कला मर जायेगी और दूसरे विचारकों के अनुसार कला का यदि कोई अच्छा उद्देश्य न हुआ तो कला दूसरों को मार डालेगी| Continue reading “सच्ची शिक्षा” »

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राग द्वेष का क्षय

राग द्वेष का क्षय

रागस्स दोसस्स य संखएणं
एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं

राग-द्वेष के क्षय से जीव एकान्तसुखस्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है

राग अपने को रुलाता है और द्वेष दूसरों को | रोना किसे अच्छा लगता है ? किसीको नहीं; तब भला रुलाना क्यों अच्छा लगना चाहिये ? हँसने-हँसाने में अर्थात् स्वयं प्रसन्नचित्त रहने और दूसरों को प्रसन्नता वितरित करने में ही जीवन की सफलता निहित है| Continue reading “राग द्वेष का क्षय” »

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राग द्वेष के कारण

राग द्वेष के कारण

रागस्स हेउं समणुमाहु,
दोसस्स हेउं अमणुमाहु

मनोज्ञ शब्दादि राग के और अमनोज्ञ द्वेष के कारण कहे गये हैं

शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श – ये पॉंचों राग के भी कारण हैं और द्वेष के भी|

कोमल प्रशंसात्मक शब्द हमें अच्छे लगते हैं और कठोर निन्दात्मक शब्द बुरे| Continue reading “राग द्वेष के कारण” »

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सद्गुण साधना

सद्गुण साधना

बाहाहिं सागरो चेव,
तरियव्वो गुणोदहिं

सद्गुण-साधना का कार्य भुजाओं से समुद्र तैरने के समान है

पहले नावों से समुद्र-यात्राएँ की जाती थीं| अब बड़े-बड़े जहाज बन गये हैं, जिनमें बैठकर यात्री एक देश से दूसरे देश में आसानी से चले जाते हैं| जबसे वायुयान बनने लगे हैं, जलयानों का भी महत्त्व घट गया है| अब बीच में पड़नेवाले सुविशाल समुद्रों की भी पर्वाह न करके लोग वायुयानों के द्वारा ही परदेश जा पहुँचते हैं| Continue reading “सद्गुण साधना” »

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विज्ञान और धर्म

विज्ञान और धर्म

विण्णए समागम्म धम्मसाहणमिच्छिउं

धर्म के साधनों का विज्ञान से समन्वय करना चाहिये

धर्म के साधनों का विज्ञान से समझौता होना चाहिये और विज्ञान के साधनों का धर्म से| इस प्रकार धर्म से विज्ञान का सम्बन्ध जुड़ना चाहिये; दोनों का समन्वय होना चाहिये| दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक बनें – सहयोगी बनें, विरोधी न रहें| इसकी जिम्मेदारी वैज्ञानिकों पर भी है और धर्मात्माओं पर भी| Continue reading “विज्ञान और धर्म” »

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सुव्रत की सद्गति

सुव्रत की सद्गति

भिक्खाए वा गिहत्थे वा,
सुव्वह गम्मई दिवं

चाहे भिक्षुक हो, चाहे गृहस्थ; जो सुव्रत है, वह स्वर्ग पाता है

यह आवश्यक नहीं है कि जो गृहस्थ है, वह सद्गति न पाये अथवा जो गृहत्यागी है, वह सद्गति अवश्य पाये| Continue reading “सुव्रत की सद्गति” »

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पापी की पीड़ा

पापी की पीड़ा

सकम्मुणा किच्चइ पावकारी

पाप करनेवाला अपने ही कर्मों से पीड़ित होता है

चोरी करनेवाला चारों ओर से सतर्क रहता है| वह फूँक-फूँक कर कदम रखता है| डरता रहता है कि कहीं कोई उसे देख न ले – रँगे हाथों पकड़ न ले| इस प्रकार अन्त तक वह भयकी वेदना से पीड़ित होता रहता है| चोरी पकड़ी जाने पर तो उसे जेल या शारीरिक दण्ड भी भोगने पड़ते हैं| Continue reading “पापी की पीड़ा” »

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