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बोधिरत्न की सुदुर्लभता

बोधिरत्न की सुदुर्लभता

बहुकम्मलेवलित्ताणं बोही
होइ सुदुल्लहा तेसिं

जो आत्माएँ बहुत अधिक कर्मों से लिप्त हैं, उनके लिए बोधि अत्यन्त दुर्लभ है

प्रत्येक संसारी जीव कर्मों से लिप्त है| कर्मों का यह लेप जिस जीव पर जितना अधिक चढ़ा हुआ है, वह उतना ही अधिक दूर रहता है – सम्यग्ज्ञान से| Continue reading “बोधिरत्न की सुदुर्लभता” »

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धर्म कहॉं टिकता है ?

धर्म कहॉं टिकता है ?

सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ

ऋजु या सरल आत्मा की शुद्धि होती है और शुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है

जिस व्यक्ति में सरलता होती है, उसीकी आत्मा शुद्ध होती है| इसके विपरीत जिसमें कुटिलता होती है; उसकी आत्मा शुद्ध हो-यह सम्भव नहीं है| Continue reading “धर्म कहॉं टिकता है ?” »

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महर्षि और संयत

महर्षि और संयत

अणुए नावणए महेसी,
न यावि पूयं, गरिहं च संजए

जो पूजा पा कर भी अहंकार नहीं करता और निन्दा पाकर भी अपने को हीन नहीं मानता; वह संयत महर्षि है

महर्षि कौन? जिसमें न अहंकार हो न दीनता| संयत कौन? निन्दा और प्रशंसा में जो समभावी हो| Continue reading “महर्षि और संयत” »

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निवृत्ति – प्रवृत्ति

निवृत्ति   प्रवृत्ति

असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं

असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति होनी चाहिये

प्राण धारण करनेवाला प्रत्येक जीवन सक्रिय होता है| वह अच्छी या बुरी प्रवृत्ति करता रहता है| Continue reading “निवृत्ति – प्रवृत्ति” »

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बुद्धिमान में नम्रता

बुद्धिमान में नम्रता

नच्चा नमइ मेहावी

बुद्धिमान ज्ञान पा कर नम्र हो जाता है

जिन वृक्षों पर फल लग जाते हैं, उनकी डालियॉं झुक जाती हैं; इसी प्रकार जिन मनुष्यों में ज्ञान पैदा हो जाता है, वे नम्र हो जाते हैं| Continue reading “बुद्धिमान में नम्रता” »

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त्रास मत दो

त्रास मत दो

न य वि त्तासए परं

किसी भी अन्य जीव को त्रास मत दो

कष्ट ! कितनी बुरी वस्तु है यह| नाम सुनकर भी मन को कष्ट की अनुभूति होने लगती है| कौन है, जो चाहेगा ? कोई नहीं| Continue reading “त्रास मत दो” »

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सिंह-सी निर्भयता

सिंह सी निर्भयता

सीहो व सद्देण न संतसेज्जा

सिंह के समान निर्भीक; केवल शब्दों से न डरिये

सिंह कितना निर्भय होता है! हाथी की चिंघाड़ से भी वह नहीं डरता| यद्यापि हाथी के शरीर से उसका शरीर बहुत छोटा होता है; फिर भी उसकी साहसिकता – उसकी वीरता उसमें प्रशंसनीय निर्भयता के भाव जगा देती है, जिससे कि वह चिंघाड़ के प्रति भी लापरवाह बन जाता है| इसी प्रकार वीर पुरुष भी शत्रुओं की ललकार से नहीं डरते; जो डर जाते हैं, वे वीर नहीं कायर हैं| Continue reading “सिंह-सी निर्भयता” »

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यथावादी तथाकारी

यथावादी तथाकारी

करणसच्चे वट्टमाणे जीवे
जहावाई तहाकारी या वि भवइ

करणसत्य में रहनेवाला जीव जैसा बोलता है, वैसा ही करता है

जो कभी पाप न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है और न किसी पापी के कार्यों का अनुमोदन ही करता है, वह करण सत्य में रहनेवाला जीव है| ऐसे सज्जन व्यक्ति का व्यवहार शुद्ध और सच्चा होता है| उसके मन-वचन और काया के व्यापारों में एकता होती है| Continue reading “यथावादी तथाकारी” »

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स्नेह और तृष्णा

स्नेह और तृष्णा

वीयरागयाएणं नेहाणुबंधणाणि,
तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिन्दइ

वीतरागता से स्नेह औ तृष्णा के बन्धन कट जाते हैं

द्वेष दुर्गुण है – त्याज्य है| द्वेष का विरोधी राग है; फिर भी राग एक दुर्गुण है और वह भी द्वेष की तरह ही त्याज्य है| Continue reading “स्नेह और तृष्णा” »

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लाभ और लोभ

लाभ और लोभ

जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ

ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों त्यों लोभ होता है और लाभ से लोभ बढ़ता रहता है

स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रत्येक संसारी जीव निरन्तर प्रयत्न करता रहता है| इस प्रयत्न में कभी उसे सफलता प्राप्त होती है और कभी विफलता|

सफलता से उत्साह बढ़ता है और विफलता से वह नष्ट हो जाता है| Continue reading “लाभ और लोभ” »

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