1 0 Tag Archives: जैन मान्यता
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मैं अकेला हूँ

मैं अकेला हूँ

एगे अहमसि, न मे अत्थि कोई,
न वाऽहमवि कस्स वि

मैं अकेला हूँ – मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ

यह संसार एक महान सरोवर की तरह है, जिसमें तिनकों की तरह प्राणी इधर-उधर से बहकर आते हैं, मिलते हैं, कुछ समय साथ रहते हैं और हवा का झोंका लगते ही (मृत्यु का धक्का लगते ही) पुनः इधर-उधर बिखर जाते हैं| Continue reading “मैं अकेला हूँ” »

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प्राणवध कैसा है?

प्राणवध कैसा है?

पाणवहो चंडो रुद्दो, खुद्दो, अणारियो,
निग्धिणो, निसंसो, महब्भभओ

प्राणवध चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणारहित है, क्रूर है, भयंकर है

प्राणवध का अर्थ है – प्राणों की हिंसा, प्राणों का नाश| इसका स्वरूप प्रकट करते हुए अथवा इसका परिचय देते हुए ज्ञानियों ने कहा है :- प्राणवध बड़ा ही प्रचण्ड है-उग्र है-असह्य है; क्योंकि इसे कोई सह नहीं सकता| Continue reading “प्राणवध कैसा है?” »

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मूर्च्छा ही परिग्रह है

मूर्च्छा ही परिग्रह है

मुच्छा परिग्गहो वुत्तो

मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा गया है

मूर्च्छा या आसक्ति ही परिग्रह है| अपने चारों ओर जो सामग्री होती है, वह सब परिग्रह नहीं कहलाती; परन्तु जिस सामग्री को हम अपनी समझते हैं अर्थात् जिस सामग्री पर हमारी ममता जागृत हो जाती है, वही परिग्रह कहलाती है| Continue reading “मूर्च्छा ही परिग्रह है” »

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निन्दक भटकता है

निन्दक भटकता है

जो परिभवइ परं जणं,
संसारे परिवत्तई महं

जो दूसरे मनुष्य का परिभव (तिरस्कार) करता है, वह संसार में भटकता रहता है

सब मनुष्य एक से एक बढ़कर हैं| कोई इससे बड़ा है तो कोई उससे-कोई अमुक गुण में महान है तो कोई अमुक गुण में; इसलिए कभी किसी को अपने से तुच्छ मानने की भूल नहीं करनी चाहिये| Continue reading “निन्दक भटकता है” »

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सन्तोषी पाप नहीं करते

सन्तोषी पाप नहीं करते

सन्तोसिणो नो पकरेंति पावं

सन्तोषी पाप नहीं करते

लोभ पाप का मूल कारण है| ज्यों-ज्यों व्यक्ति लाभान्वित होता जाता है, त्यों-त्यों वह अधिक से अधिक पापमार्ग में प्रवृत होता जाता है; क्यों कि लाभ के अनुपात में उसका लोभ बढ़ता रहता है, जो अनुचित एवं अन्यायपूर्ण कार्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करता रहता है| Continue reading “सन्तोषी पाप नहीं करते” »

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कठोर वाणी न बोलें

कठोर वाणी न बोलें

नो वयणं फरूसं वइज्जा

वाणी भी दो तरह की होती है – कठोर और कोमल| क्रोध और क्रूरता में वाणी कठोर निकलती है तथा विनय और शान्ति में कोमल | करुणा, दया, सहानुभूति, प्रेम, ममता, मोह, स्नेह और माया की वाणी कोमल होती है| इसके विपरीत निष्ठुरता, निर्दयता, द्वेष, क्रोध आदि में वाणी कठोर निकलती है| Continue reading “कठोर वाणी न बोलें” »

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सिंह-सी निर्भयता

सिंह सी निर्भयता

सीहो व सद्देण न संतसेज्जा

सिंह के समान निर्भीक; केवल शब्दों से न डरिये

सिंह कितना निर्भय होता है! हाथी की चिंघाड़ से भी वह नहीं डरता| यद्यापि हाथी के शरीर से उसका शरीर बहुत छोटा होता है; फिर भी उसकी साहसिकता – उसकी वीरता उसमें प्रशंसनीय निर्भयता के भाव जगा देती है, जिससे कि वह चिंघाड़ के प्रति भी लापरवाह बन जाता है| इसी प्रकार वीर पुरुष भी शत्रुओं की ललकार से नहीं डरते; जो डर जाते हैं, वे वीर नहीं कायर हैं| Continue reading “सिंह-सी निर्भयता” »

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हिंसा न करें

हिंसा न करें

सव्वेसिं जीवियं पियं,
नाइवाएज्ज कंचणं

सबको जीवन प्रिय है, किसीके प्राणों का अतिपात नहीं चाहिये

कौन प्राणी है, जो जीवित रहना नहीं चाहता? अपना-अपना जीवन सभीको प्यारा लगता है| मनुष्य का जीवन कितना मूल्यवान् है – इसका पता तब लगता है, जब उसके सामने एक ओर करोड़ों स्वर्णमुद्राओं के साथ उसकी मृत्यु तथा दूसरी ओर साधारण अबल के साथ उसका जीवन रखकर इनमें से किसी एक का चयन करने के लिए उसे कहा जाये| Continue reading “हिंसा न करें” »

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यथावादी तथाकारी

यथावादी तथाकारी

करणसच्चे वट्टमाणे जीवे
जहावाई तहाकारी या वि भवइ

करणसत्य में रहनेवाला जीव जैसा बोलता है, वैसा ही करता है

जो कभी पाप न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है और न किसी पापी के कार्यों का अनुमोदन ही करता है, वह करण सत्य में रहनेवाला जीव है| ऐसे सज्जन व्यक्ति का व्यवहार शुद्ध और सच्चा होता है| उसके मन-वचन और काया के व्यापारों में एकता होती है| Continue reading “यथावादी तथाकारी” »

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स्नेह और तृष्णा

स्नेह और तृष्णा

वीयरागयाएणं नेहाणुबंधणाणि,
तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिन्दइ

वीतरागता से स्नेह औ तृष्णा के बन्धन कट जाते हैं

द्वेष दुर्गुण है – त्याज्य है| द्वेष का विरोधी राग है; फिर भी राग एक दुर्गुण है और वह भी द्वेष की तरह ही त्याज्य है| Continue reading “स्नेह और तृष्णा” »

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