सुव्वह गम्मई दिवं
चाहे भिक्षुक हो, चाहे गृहस्थ; जो सुव्रत है, वह स्वर्ग पाता है
सद्गति या दुर्गति का सम्बन्ध बाह्य क्रियाओं से नहीं, आन्तरिक क्रियाओं अर्थात् भावनाओं से है| गृहस्थ की भी भावनाएँ पवित्र हो सकती हैं और गृहत्यागी की भावनाएँ अपवित्र भी हो सकती हैं|
पवित्र भावना से किया गया घर की सम्पत्ति का आंशिक त्याग भी सफल है – मंगलकारी है| और अपवित्र भावना से किया गया पूरे घर का त्याग भी विफल है – अमंगलकारी है|
पवित्र भावनाओं से ही आचरण पवित्र होता है – व्यवहार शुद्ध होता है – आध्यात्मिक साधना में गति आती है – अपने व्रतों का सम्यक्प्रकार से पालन किया जा सकता है|
जो व्यक्ति अपने अंगीकृत व्रतों का अच्छी तरह से पालन करता है, वह ‘सुव्रत’ कहलाता है | जो सुव्रत है, वह अवश्य स्वर्ग, सद्गति या मुक्ति पाता है| फिर भले ही वह भिक्षु (मुनि) हो अथवा गृहस्थ|
- उत्तराध्ययन सूत्र 5/22
Jai jinendra. Here the question arises as to what is the meaning of the word “Diva” referred in this sutra. Does it meant Moksha or Devloka ( heaven ) ? In either case the difference between the Householder and the ascetic gets eliminated.If we accept the second meaning of the word “Diva” as heaven,then the purpose of becoming as ascetic gets nullified.I shall be highly obliged if someone will throw light on this.
Jai jinendra. After thinking over the verse (sutra),The attainment of Moksha by a family man is as an exceptional way.Not a regular way.Likewise Devloka by asctic is more or less like that.
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