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पाप श्रमण

पाप श्रमण

सुच्चा पिच्चा सुहं सुवइ पावसमणे त्ति वुच्चइ

जो खा-पीकर आराम से सोता है, वह पापश्रमण कहलाता है

भोजन शरीरयात्रा के लिए है| शरीर की शक्ति टिकाये रखने के लिए है; परन्तु जीवन की सफलता शक्ति को टिकाये रखने में नहीं, उसका सदुपयोग करने में है|

शक्तिशाली तो दुष्ट भी हो सकता है – अत्याचारी भी हो सकता है – डाकू भी हो सकता है; इसलिए जो अपनी शक्ति का सदुपयोग करता है अर्थात् अपनी शक्ति को दूसरों की सहायता में लगाता है – दुखियों के दुःख दूर करने में लगाता है – पतितों के उत्थान में लगाता है – दूसरों की भलाई करने में – सेवा करने में लगाता है, उसीका जीवन सफल होता है – यशस्वी होता है – प्रशंसनीय होता है|

बहुत-से लोग शक्ति का दुरुपयोग तो नहीं करते, पर अनुपयोग करते हैं| वे आलसी होते हैं| वे लोग जीने के लिए नहीं खाते; किंतु खाने के लिए जीते हैं| वे स्वादिष्ट वस्तुओं को प्राप्त करके उनका उपभोग करते हैं, खाते-पीते हैं और फिर लम्बी तान कर आराम से सोते हैं| ऐसे साधुओं को ‘‘पापश्रमण’’ कहा गया है|

- उत्तराध्ययन सूत्र 17/3

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1 Comment

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  1. Toral shah
    मार्च 8, 2016 #

    Very inspirational article. We should eat to live and not live to eat.

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