पडिनिवेसेणं, अकयण्णुयाए, मिच्छत्ताभिनिवेसेणं
मनुष्य में विद्यमान गुण भी चार कारणों से नष्ट हो जाते हैं – क्रोध, ईर्ष्या, अकृतज्ञता और मिथ्या आग्रह
दूसरा कारण है – ईर्ष्या| अपनी उन्नति के लिए स्पर्द्धा ही पर्याप्त है, जिसमें अपनी योग्यता को विकसित करने की प्रेरणा भरी हुई है; परन्तु ईर्ष्या आग है| वह हृदय में जलती रहती है और दूसरे उन साथियों का बुरा सोचने एवं बुरा करने के लिए प्रेरित करती रहती है|
तीसरा कारण है – अकृतज्ञता| उपकारी के प्रति कृतज्ञ के बदले जो व्यक्ति कृतघ्न बन जाते हैं, वे उन भावी उपकारों से वंचित रहते हैं, जो उपकारी के द्वारा किये जा सकते हैं|
चौथा कारण है – मिथ्या आग्रह| एक बार स्वीकृत की हुई बात यदि अन्य समय में असत्य साबित हो जाये; तो उसका परित्याग कर देना चाहिये; किंतु मिथ्याग्रही ऐसा नहीं कर पाते|
इस प्रकार क्रोध, ईर्ष्या, अकृतज्ञता और मिथ्या आग्रह-ये चार कारण हैं गुणनाश के|
- स्थानांग सूत्र 4/4
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