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निर्लिप्तता और स्वावलम्बन

निर्लिप्तता और स्वावलम्बन

पोक्खरपत्तं इव निरुवलेवे,
आगासं चेव निरवलंबे

साधक को कमलपत्र की तरह निर्लेप और आकाश की तरह निरवलम्ब रहना चाहिये

कमल पानी में उत्प होता है और उसीमें रहता है; किन्तु उसके किसी भी पत्ते पर पानी की बूँद नहीं ठहरती, नहीं चिपकती| जिस प्रकार कमलपत्र पानी में रहकर भी पानी से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी संसार में रहते हुए भी उससे सर्वथा निर्लिप्त रहता है – अनासक्त रहता है|

जिस प्रकार आकाश बिना किसी आधार के टिका होने से वह निरवलम्ब है, उसी प्रकार साधक भी निरवलम्ब होता है – वह दूसरों का सहारा नहीं लेता- अपना काम स्वयं करता हैं – दूसरों पर अपने कार्य का भार कभी नहीं डालता| दूसरे शब्दों में हम उसे स्वावलम्बी कह सकते हैं| इस प्रकार कमलपत्र और आकाश इन दो वस्तुओं की उपमा के द्वारा यहॉं साधक के जीवन का महत्त्व बताया गया है – उसके दो गुणों का प्रभावशाली ढंग से परिचय दिया गया है, जिससे नये साधकों को प्रेरणा प्राप्त हो | वे गुण हैं – निर्लिप्तता और स्वावलम्बन|

- प्रश्‍नव्याकरण 2/5

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1 Comment

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  1. samani satya pragya
    अप्रैल 11, 2012 #

    nice effort to spread jainism

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