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झुँझलायें नहीं

झुँझलायें नहीं

थोवं लद्धुं न खिंसए

थोड़ा मिलने पर झुँझलाएँ नहीं

यदि पूछा जाये कि ‘कुछ न मिलना’ अच्छा है या ‘कुछ मिलना’ तो यही उत्तर मिलेगा कि कुछ मिलना अच्छा है; परन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो टुकड़ों में या खण्डशः कोई वस्तु लेना पसन्द नहीं करते| वे पूर्ण वस्तु पाना चाहते हैं; इसलिए अपूर्ण वस्तु की प्राप्ति पर अप्रसन्न होते हैं|

ऐसे सभी लोगों को प्रतिबोध देने के लिए यह सूक्ति तैयार है|

सन् 1947 ई. में अंग्रेजों ने भारत को दो टुकड़े बनाकर स्वतन्त्रता दी| उस समय ‘‘अखण्ड भारत’’ का नारा लगाने वाले सज्जन बहुत असन्तुष्ट हुए; परन्तु उनके असन्तोष पर ध्यान देकर खंडित भारत की स्वतन्त्रता यदि स्वीकार न की गई होती तो क्या भारत अब तक परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा ही न रहता !

हमें यह नीति बना लेनी चाहिये कि जितना अंश प्राप्त हो, उसे स्वीकार लें और अगला अंश पाने का प्रयास चालू रखें| इस प्रकार धीरे-धीरे एक दिन सम्पूर्ण वस्तु पर अधिकार प्राप्त हो जायेगा|

फिर सन्तोष भी तो एक अच्छी चीज है| गोचरी में साधु साध्वियों को जो कुछ मिल जाये, उसी में वे सन्तुष्ट रहें – थोड़ा मिले तो भी दाता पर झुँझलायें नहीं|

- दशवैकालिक सूत्र 8/26

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