इमम्मि लोए अदु वा परत्था
प्रमत्त मनुष्य धन के द्वारा न इस लोक में अपनी रक्षा कर सकता है, न परलोक में ही
बहुत से लोग सोचते हैं कि धन से हमारी रक्षा होगी; इसलिए वे धन की रक्षा करते हैं; परंतु वे यह क्यों नहीं सोचते कि जिस धन की सुरक्षा दूसरों को करनी पड़ती है, वह धन स्वयं कैसे दूसरों की रक्षा का कार्यभार सँभाल सकेगा?
धन का उपार्जन करना भी कष्टसाध्य है| उपार्जित धन की रक्षा करना भी कष्टपूर्ण है| उसे खर्च करने में भी कष्ट होता है| वह खो जाये या कोई उसे चुरा ले जाये तो भी कष्ट होता है| उसे सदा सुरक्षित रखने की चिन्ता का कष्ट तो निरन्तर सिर पर सवार ही रहता है| इस प्रकार धन के आगे पीछे कष्ट ही कष्ट मँडराया करते हैं|
विवेकी मनुष्य अपने धन को परोपकार में लगाकर परलोक सुधारते हैं और इस लोक में भी सन्मान पाते हैं; परंतु प्रमादी व्यक्ति उसे भोगविलास में उड़ा देते हैं, इसलिए धन के द्वारा वे न इस लोक में अपनी रक्षा कर पाते हैं और न परलोक में भी|
- उत्तराध्ययन सूत्र 4/5
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