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न प्रिय, न अप्रिय

न प्रिय, न अप्रिय

सव्वं जगं तु समयाणुपेही,
पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा

सारे जगत को जो समभाव से देखता है उसे न किसी का प्रिय करना चाहिये, न अप्रिय

भावना हमारे समस्त कार्यकलाप की प्रेरिका है| यदि उसमें शुद्ध रहे; तो हमसे शुद्ध कार्य होंगे और यदि उसमें अशुद्धि रहे; तो अशुद्ध कार्य होंगे|

भावना की शुद्धि या निर्मलता के नाशक दो गुण हैं – राग और द्वेष | जिसके प्रति राग होता है, उस पर मोह एवं ममता पैदा हो जाती है और जिसके प्रति द्वेष होता है, उस पर क्रोध एवं क्रूरता| एक प्रिय होता है, दूसरा अप्रिय|

जो प्रिय लगता है, उसके प्रति अनुचित पक्षपात किया जाता है और जो अप्रिय लगता है उसके प्रति अनुचित द्वेष|

वीतरागदेव के उपासक साधु-साध्वी इस अनुचित पक्षपात एवं द्वेष से ऊपर उठने की साधना करते रहते हैं| अपने अन्तःकरण में ममता के स्थान पर वे समता को प्रतिष्ठित करते हैं| अखिल विश्व को समभाव की दृष्टि से देखने वाले तटस्थ साधकों को ज्ञानियों ने परामर्श देते हुए कहा है कि उन्हें किसी का भी न तो प्रिय करना चाहिये और न अप्रिय ही|

- सूत्रकृतांग सूत्र 1/10/6

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