से दिट्ठिमं दिट्ठि न लूसएज्जा
सम्यग्दृष्टि साधक को सत्यदृष्टि का अपलाप नहीं करना चाहिये
जिसकी दृष्टि सम्यक् होती है, वह जानता है कि जो वस्तु जिस समय जहॉं जैसी है, वह अन्य समय में अन्यत्र भी वैसी ही होगी – ऐसा निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता| दस वर्ष के पहले जिस शिशु के मुँह में दॉंत तक नहीं थे और जो घुटनों के बल पर भी मुश्किल से ही चल पाता था, आज वह अपने दॉंतों से चबाकर रोटी खाने लगता है और दौड़ने लगता है; क्यों कि वस्तुएँ परिवर्त्तनशील हैं| सम्यग्दृष्टि साधक इसीलिए कभी दुराग्रही नहीं होता और न मिथ्यादृष्टि दुराग्रहियों से वह प्रभावित ही होता है| अपने सम्यक्त्व पर वह टिका रहता है|
- सूत्रकृतांग सूत्र 1/14/25
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