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वृद्धावस्था

वृद्धावस्था

से ण हासाए, ण किड्डाए,
ण रतीए, ण विभूसाए

वृद्ध होने पर व्यक्ति न हास-परिहास के योग्य रहता है, न क्रीड़ा के, न रति के और न शृंगार के ही

जन्म लेने के बाद प्रत्येक व्यक्ति शिशु, बालक, किशोर और तरुण बनकर क्रमशः वृद्धावस्था को प्राप्त करता है| यदि कोई किशोर चाहे के मैं तरुण न बनूँ; तो यह उसके वश की बात नहीं है| किशोरावस्था के बाद तारुण्य अनिवार्य है| उसी प्रकार उसके बाद वार्धक्य (बुढ़ापा) भी अनिवार्य है; जो व्यक्ति के सौन्दर्य को नष्ट कर देता है – इन्द्रियों को शिथिल कर देता है – शारीरिक शक्तियों को क्षीण कर देता है| उस अवस्था में व्यक्ति न हास-परिहास कर सकता है, न खेल-कूद या न क्रीड़ा-कौतुक में भाग ले सकता है, न रति (मैथुन या सम्भोग) के योग्य रहता है और न सुन्दर वेशभूषा या श्रृंगार ही उसे पसन्द आता है| उस अवस्था में रोग भी शीघ्र आक्रमण कर बैठते हैं और वह घर के कोने में लेटा हुआ मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहता है| ऐसी होती है वृद्धावस्था!

- आचारांग सूत्र 1/2/1

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