1 0 Tag Archives: जैन सूत्र
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चार संयम

चार संयम

चउव्विहे संजमे – मणसंजमे,
वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे

मनसंयम, वचनसंयम, शरीरसंयम और उपकरणसंयम – ये संयम के चार प्रकार हैं

समुद्र जिस प्रकार अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता, उसी प्रकार साधुसन्त भी अपनी मर्यादा नहीं छोड़ते| संयम का पालन करना ही उनकी मर्यादा है| Continue reading “चार संयम” »

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सुव्रत की सद्गति

सुव्रत की सद्गति

भिक्खाए वा गिहत्थे वा,
सुव्वह गम्मई दिवं

चाहे भिक्षुक हो, चाहे गृहस्थ; जो सुव्रत है, वह स्वर्ग पाता है

यह आवश्यक नहीं है कि जो गृहस्थ है, वह सद्गति न पाये अथवा जो गृहत्यागी है, वह सद्गति अवश्य पाये| Continue reading “सुव्रत की सद्गति” »

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शूरम्मन्य

शूरम्मन्य

सूरं मण्णइ अप्पाणं,
जाव जेयं न पस्सति

व्यक्ति तभी तक अपने को शूरवीर मानता है, जब तक विजेता को नहीं देख लेता

दुनिया में एक से बढ़कर एक लोग चारों ओर भरे पड़े हैं| कोई रूप में बड़ा है, कोई विद्या में – कोई धन में बड़ा है तो कोई शक्ति में|

शक्ति में भी कोई लाखों से बड़ा है; तो हजारों से छोटा भी हो सकता है; क्यों कि दुनिया बहुत बड़ी है| प्रत्येक सेर के लिए कहीं-न-कहीं सवासेर अवश्य मौजूद है| ऐसी अवस्था में आसपास के लोगों से अधिक योग्यता पा कर ही अपने को कोई यदि दुनिया में सबसे बड़ा मान बैठता है; तो यह उसकी भूल है| किसी दिन यदि उसे कोई अपने से बड़ा व्यक्ति मिल गया; तो उस दिन उसका सारा घमण्ड चूर-चूर हो जायगा| समझदार व्यक्ति इसीलिए कभी अपनी योग्यताओं का घमण्ड नहीं करते|

जो लोग ऐसा करते हैं, वे अविवेकी हैं| ऐसे लोग जब तक अपने से अधिक शक्तिशाली विजेता को नहीं देख लेते, तब तक अपने आप को शूरवीर मानते रहते हैं|

- सूत्रकृतांग सूत्र 1/3/1/1

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पापी की पीड़ा

पापी की पीड़ा

सकम्मुणा किच्चइ पावकारी

पाप करनेवाला अपने ही कर्मों से पीड़ित होता है

चोरी करनेवाला चारों ओर से सतर्क रहता है| वह फूँक-फूँक कर कदम रखता है| डरता रहता है कि कहीं कोई उसे देख न ले – रँगे हाथों पकड़ न ले| इस प्रकार अन्त तक वह भयकी वेदना से पीड़ित होता रहता है| चोरी पकड़ी जाने पर तो उसे जेल या शारीरिक दण्ड भी भोगने पड़ते हैं| Continue reading “पापी की पीड़ा” »

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सदाचार का मूल

सदाचार का मूल

नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न होंति चरणगुणा

सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान प्राप्त नहीं होता और ज्ञान के अभाव में चारित्र-गुण प्राप्त नहीं होते

दृष्टि यदि सम्यक् न हो तो मनुष्य सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता; क्यों कि जबतक दृष्टि सम्यक् परक नहीं होगी, सम्यक् की खोज नहीं की जा सकेगी और इसके लिए आवश्यक होगा कि दृष्टि स्वयं भी सम्यक् हो| सम्यग्ज्ञान से पहले सम्यग्दर्शन होना चाहिये| Continue reading “सदाचार का मूल” »

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दुःखप्रदायकता

दुःखप्रदायकता

सव्वे कामा दुहावहा

सभी काम दुःखप्रद होते हैं

यहॉं ‘काम’ शब्द का अर्थ कार्य नहीं हैं, तीसरा पुरुषार्थ है| हिन्दी में काम शब्द दोनों अर्थों में प्रचलित है| इस सूक्ति में कामनाओं के त्याग का परामर्श दिया गया है और इसका कारण बताया है – उनकी दुःखदायकता| Continue reading “दुःखप्रदायकता” »

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मायामृषावाद

मायामृषावाद

सादियं न मुसं बूया

मन में कपट रखकर झूठ नहीं बोलना चाहिये

झूठ बोलना बुरा है; परन्तु उसकी बुराई की मात्रा का निर्णय तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक यह पता नहीं लग जाता कि झूठ बोलने का कारण और प्रयोजन क्या है| Continue reading “मायामृषावाद” »

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साधुओं की प्रसन्नता

साधुओं की प्रसन्नता

महप्पसाया इसिणो हवंति

ऋषि सदा प्रसन्न रहते हैं

जीवन में परिस्थियॉं कभी अनुकूल रहती हैं और कभी प्रतिकूल | प्रतिकूल परिस्थियों में जो धीरज खो देते हैं अर्थात् जिनका मानसिक सन्तुलन नष्ट हो जाता है, वे प्रसन्न नहीं रह सकते| जो अपने मन को क्षणिक सुख देनेवाली विषय-सामग्री एकत्र करने में लगा देते हैं, वे भी सदा अशान्त रहते हैं| Continue reading “साधुओं की प्रसन्नता” »

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अपराजेय शत्रु

अपराजेय शत्रु

एगप्पा अजिए सत्तू

एक असंयत आत्मा ही अजित शत्रु है

अपना शत्रु कौन है ?

जिसे हम अपना शत्रु समझते हैं| Continue reading “अपराजेय शत्रु” »

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जीव और शरीर

जीव और शरीर

ओ जीवो अं सरीरं

जीव अन्य है, शरीर अन्य

‘‘मैं’’ शब्द से आत्मा या जीव का प्रत्यभिज्ञान होता है; इसलिए कुछ लोग ‘‘मै अन्धा हूँ’’ आदि प्रयोग देखकर इन्द्रियों को ही आत्मा मान बैठते हैं| कुछ लोग ‘‘मैं दोड़ता हूँ’’, ‘‘मैं बीमार हूँ’’, ‘‘मैं कपड़े धोता हूँ’’, ‘‘मैं स्नान करता हूँ’’, आदि प्रयोगों के आधार पर शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं| Continue reading “जीव और शरीर” »

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