1 0 Tag Archives: जैन मान्यता
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तपस्या और जाति

तपस्या और जाति

सुक्खं खु दीसइ तवोविसेसो,
न दीसई जाइविसेस कोई

तपविशेष तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, परन्तु कोई जातिविशेष नहीं दिखाई देता

तपस्या से शरीर में जो कृशता पैदा हो जाती है, उसे देखने से पता चल जाता है कि अमुक व्यक्ति तपस्वी है या नहीं| तपस्या से तपस्वी का तन भले ही क्षीण हो; परन्तु मन क्षीण नहीं होता| Continue reading “तपस्या और जाति” »

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झूठ बोलने लगता है

झूठ बोलने लगता है

लोभपत्ते लोभी समावइज्जा मोसं वयणाए

लोभ का प्रसंग आने पर लोभी झूठ बोलने लगता है

झूठ बोलने के अनेक कारण हैं – क्रोध, मान, माया आदि; परन्तु लोभ सबसे बड़ा कारण है| जो लोभी व्यक्ति है, वह साधारण – से लाभ के लिए भी बात-बात पर झूठ बोलने को तैयार हो जाता है| Continue reading “झूठ बोलने लगता है” »

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लोभ और चंचलता

लोभ और चंचलता

लद्धो लोलो भणेज्ज अलियं

लोभी और चञ्चल व्यक्ति झूठ बोला करता है

जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी न कहना अयथार्थ वचन है – झूठी बात है| झूठ कौन बोलता है ? इस प्रश्‍न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति लोभी होता है, वह अपनी तृष्णा तो तृप्त करने के लिए झूठ बोलता है| तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती – यह एक वास्तविकता है; परन्तु लोभी इस वास्तविकता से अनभिज्ञ बना रह कर जीवनभर तृष्णा-तृप्ति का प्रयास करता ही रहता है| इस प्रयास में उसे कभी सफलता नहीं मिलती; फिर भी वह निरन्तर इसके लिए दौड़धूप करता ही रहता है और कदम कदम पर झूठ बोलने को तैयार रहता है| Continue reading “लोभ और चंचलता” »

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सादि सान्त

सादि सान्त

सरीरं सादियं सनिधणं

शरीर सादि है और सान्त भी

इस जगत् के समस्त पदार्थ इन चार विभागों में विभाजित किये जा सकते हैं :-
1) अनादि अनन्त
2) अनादि सान्त
3) सादि अनन्त
4) सादि सान्त
Continue reading “सादि सान्त” »

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जान कर बोलें

जान कर बोलें

जमट्ठं तु न जाणेज्जा, एवमेयंति नो वए

जिसके विषय में पूरी जानकारी न हो, उसके विषय में ‘‘यह ऐसा ही है’’ ऐसी बात न कहें

जिस विषय में हमें पूरी जानकारी न हो, उस विषय में निश्‍चय पूर्वक कोई बात नहीं कहनी चाहिये, अन्यथा सुनने वालों को जब अन्य स्त्रोतों से यथार्थ ज्ञान हो जायेगा, तब हमारी स्थिति उपहासास्पद बन जायेगी| लोग हम पर विश्‍वास ही नहीं करेंगे| Continue reading “जान कर बोलें” »

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मुखरता से बचें

मुखरता से बचें

मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमत्थू

मुखरता सत्यवचन का विघाता करती है

अधिक बोलने वाले के पेट में कोई बात टिक नहीं पाती – मुखरता को इसीलिए त्याज्य माना गया है| इसे त्याज्य मानने का एक कारण और भी है – सत्य वचन का विघात| Continue reading “मुखरता से बचें” »

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चार श्रावक

चार श्रावक

चत्तारि समणोवासगा-अद्दागसमाणे,
पडागसमाणे, ठाणुसमाणे, खरकंटगसमाणे

श्रमणोपासक चार प्रकार के होते हैं – दर्पण के समान (स्वच्छ हृदय वाले), पताका के समान (चञ्चल हृदय वाले), स्थाणु के समान (दुराग्रही) और तीक्ष्ण कण्टक के समान (कटुभाषी)

श्रमणों के प्रति श्रद्धा रखने वाले – उनकी उपासना करने वाले श्रमणोपासक या श्रावक कहलाते हैं| Continue reading “चार श्रावक” »

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इच्छानिरोध

इच्छानिरोध

छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं

इच्छाओं को रोकने से ही मोक्ष प्राप्त होता है

इच्छाएँ अनन्त हैं| एक इच्छा को पूरी करें; तो दूसरी पैदा हो जाती है| फिर दूसरी के बाद तीसरी, तीसरी के बाद चौथी और चौथी के बाद पॉंचवी अर्थात् एक के बाद एक इच्छा उत्पन्न होती ही रहती है | प्राणी उसकी पूर्ति को लिए दौड़धूप करता ही रहता है और एक दिन अन्तिम सॉंस छोड देता है| Continue reading “इच्छानिरोध” »

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