1 0 Tag Archives: जैन मान्यता
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अनन्तसुख का नाश मत कीजिये

अनन्तसुख का नाश मत कीजिये

माएयं अवमन्जंता, अप्पेणं लुंपहा बहुं

सन्मार्ग का तिरस्कार करके अल्प सुख (विषयसुख) के लिए अनन्त सुख (मोक्षसुख) का विनाश मत कीजिये

यदि कोई हीरे के बदले कङ्कर ले ले तो उसे आप क्या समझेंगे ? आप समझेंगे, वह मूर्ख है| सुमार्ग के बदले कुमार्ग को अपनाने वाले भी ऐसे ही मूर्ख हैं| Continue reading “अनन्तसुख का नाश मत कीजिये” »

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अभोगी नहीं भटकता

अभोगी नहीं भटकता

भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ|

भोगी संसार में भटकता है और अभोगी मुक्त हो जाता है

जो इन्द्रियों के वश में रहता है, वह विषयसामग्री को एकत्र करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है| अनुकूल विषयसामग्री को जुटा कर कभी वह एक इंद्रिय को तृप्त करता है तो कभी दूसरी को| Continue reading “अभोगी नहीं भटकता” »

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क्रिया में रुचि

क्रिया में रुचि

किरियं च रोयए धीरो

धीर पुरुष क्रिया में रुचिवाला होता है

बच्चा इसलिए दूध नहीं पीता कि दूध से शरीर को पोषण मिलता है| वह तो केवल इसलिए पीता है कि उसे दूध मीठा लगता है, भाता है| Continue reading “क्रिया में रुचि” »

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बीच में कहॉं ?

बीच में कहॉं ?

जस्स नत्थि पुरा पच्छा
मज्झे तस्स कुओ सिया ?

जिसके आगे-पीछे न हो, उसके बीच में भी कैसे होगा?

जिसके लिए आगे-पीछे नहीं है, उसके लिए बीच में भी कुछ कहॉं से हो सकता है? Continue reading “बीच में कहॉं ?” »

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विनय में स्थिर करें

विनय में स्थिर करें

विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो

आत्महितैषी साधक अपने को विनय में स्थिर करे

किसी बैलगाड़ी या तॉंगे में बैठने वाला व्यक्ति स्थिर रहने का चाहे कितना भी प्रयास क्यों न करे, उसका बदन हिलता ही रहेगा| इसके विपरीत जमीन पर अथवा किसी शिला पर बैठने वाले व्यक्ति पायेंगे; कि उनका शरीर स्थिर है| शरीर की अस्थिरता या स्थिरता उसके आधार पर अवलम्बित है| Continue reading “विनय में स्थिर करें” »

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आप स्वयं अपने मित्र है|


पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं,
किं बहिया मित्तमिच्छसि

हे पुरुष ! तू स्वयं ही अपना मित्र है| अन्य बाहर के मित्रों की चाह क्यों रखता है ?

कहते हैं, ईश्‍वर भी उसीकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करता है| इसका आशय यही है कि दूसरों की सहायता की आशा न रखते हुए हमें स्वयं ही अपने कर्त्तव्य का पालन करते रहना चाहिये| Continue reading “आप स्वयं अपने मित्र है|” »

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मनुष्यभव

मनुष्यभव

जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययन्ति मणुस्सयं

सांसारिक जीव क्रमशः शुद्ध होते हुए मनुष्यभव पाते हैं

जीव शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं| ऐसी योनियों की संख्या शास्त्रों में चौरासी लाख बताई गयी है| मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ मानी गई है; क्योंकि यहीं से सिद्धपद की प्राप्ति हो सकती है – मोक्ष की साधना हो सकती है| Continue reading “मनुष्यभव” »

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निर्लिप्तता और स्वावलम्बन

निर्लिप्तता और स्वावलम्बन

पोक्खरपत्तं इव निरुवलेवे,
आगासं चेव निरवलंबे

साधक को कमलपत्र की तरह निर्लेप और आकाश की तरह निरवलम्ब रहना चाहिये

कमल पानी में उत्प होता है और उसीमें रहता है; किन्तु उसके किसी भी पत्ते पर पानी की बूँद नहीं ठहरती, नहीं चिपकती| जिस प्रकार कमलपत्र पानी में रहकर भी पानी से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी संसार में रहते हुए भी उससे सर्वथा निर्लिप्त रहता है – अनासक्त रहता है| Continue reading “निर्लिप्तता और स्वावलम्बन” »

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सदा जागृत

सदा जागृत

सुत्ता अमुणी, मुणीणो सया जागरंति

जो सुप्त हैं, वे अमुनि है मुनि तो सदा जागते रहते हैं

जो अमुनि हैं-असाधु हैं; जिनमें साधुता या साधकता का अभाव है, वे आलसी लोग सोते रहते हैं| जो सोते हैं, उनकी आँखें बन्द रहती हैं और उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता| इसी प्रकार जो असाधु हैं; उनके विवेक – चक्षु बन्द रहते हैं और इसीलिए उन्हें अपने कर्त्तव्य अकर्त्तव्य का भान नहीं रहता| वे किंकर्त्तव्यविमूढ़ बने रहते हैं| Continue reading “सदा जागृत” »

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सदा अमूढ़

सदा अमूढ़

सम्मद्दिट्ठि सया अमूढे

जिसकी दृष्टि सम्यक् है, वह सदा अमूढ़ होता है

मिथ्याद्दष्टि मूढ़ होता है; उसकी मूढ़ता सत्संग से मिट सकती है; किंतु सम्यग्द्दष्टि अमूढ़ होता है, उसकी अमूढ़ता कुसंगति से भी नहीं मिटती| Continue reading “सदा अमूढ़” »

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