1 0 Tag Archives: जैन आगम
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इसी क्षण को समझें

इसी क्षण को समझें

इणमेव खणं वियाणिया

प्रतिक्षण अपनी आयु ठीक उसी प्रकार क्षीण होती जा रही है, जिस प्रकार अञ्जलि में रहा हुआ जल क्षीण होता रहता है| धीरे-धीरे एक समय ऐसा आयेगा, जब आयु सर्वथा समाप्त हो जायेगी और हम अपनी अन्तिम सॉंस छोड़ कर सदा के लिए आँखें बन्द कर लेंगे| Continue reading “इसी क्षण को समझें” »

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संचित कर्मों का क्षय

संचित कर्मों का क्षय

तुट्टन्ति पावकम्माणि
नवं कम्ममकुव्वओ

जो नये कर्मों का बन्धन नहीं करता, उसके पूर्वसञ्चित पापकर्म भी नष्ट हो जाते हैं

हम जितना कुछ खाते हैं, वह सब मलद्वारसे ज्यों का त्यों नहीं निकल जाता| कुछ विष्टा के रूप में बाहर निकलता है और कुछ आँतों मे जमा रहता है- आँतों से चिपका रहता है और पड़ा-पड़ा सड़कर अनेक रोग पैदा करता है| आरोग्य के सन्देशवाहक कहते हैं कि हमें सप्ताह में एक उपवास करके पेट को विश्राम देना चाहिये| नया भोजन पेट में न पहुँचने पर वह चिपका हुआ संचित मल भी बाहर निकल जायेगा| Continue reading “संचित कर्मों का क्षय” »

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निवृत्ति – प्रवृत्ति

निवृत्ति   प्रवृत्ति

असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं

असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति होनी चाहिये

प्राण धारण करनेवाला प्रत्येक जीवन सक्रिय होता है| वह अच्छी या बुरी प्रवृत्ति करता रहता है| Continue reading “निवृत्ति – प्रवृत्ति” »

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आतुरता

आतुरता

आतुरा परितावेंति

आतुर परिताप देते हैं

जो व्यक्ति आतुर होते हैं अर्थात् कामातुर या विषयातुर होते हैं, वे दूसरों को परिताप (कष्ट) देते हैं – सताते हैं स्वार्थ में अन्धे बने हुए ऐसे व्यक्तियों के विवेक – चक्षु बन्द रहते हैं| उन्हें कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का भान ही नहीं रहता| अपने कण-भर सुख के लिए वे दूसरों को मणभर दुःख पहुँचाने में भी कोई संकोच नहीं करते| अपने क्षणिक सुख के लिए दूसरों को चिरस्थायी दुःख देनेवाले इन व्यक्तियों की क्रूरता अपनी चरम सीमा पर जा पहुँचती है| Continue reading “आतुरता” »

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जो उत्थित हैं, वे प्रमाद न करें

जो उत्थित हैं, वे प्रमाद न करें

उट्ठिए, नो पमायए
जो प्रसुप्त है, उसे जागृत होना चाहिये| जो जागृत हो चुका है, उसे उत्थित होना चाहिये अर्थात् शय्या छोड़ कर उठ बैठना चाहिये और जो उत्थित हो चुका है, उसे प्रमाद नहीं करना चाहिये अर्थात् उसे खड़े होकर साधना के पथ पर – सन्मार्ग पर चल पड़ना चाहिये; Continue reading “जो उत्थित हैं, वे प्रमाद न करें” »

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साधकों का चक्षु

साधकों का चक्षु

से हु चक्खु मणुस्साणं,
जे कंखाए य अन्तए

जिसने कांक्षा (आसक्ति) का अन्त कर दिया है, वह मनुष्यों का चक्षु है

जिसने अपनी कामनाओं को वश में कर लिया है – जो अपनी इन्द्रियों के विषयों पर किञ्चित् भी आसक्ति नहीं रखता, वही पुरुष निरपेक्ष होता है – निष्पक्ष होता है – निःस्वार्थ होता है| और इसीलिए आध्यात्मिक-साधना करनेवालों को पथदर्शन करने का वह पूर्ण अधिकारी होता है| Continue reading “साधकों का चक्षु” »

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बुद्धिमान में नम्रता

बुद्धिमान में नम्रता

नच्चा नमइ मेहावी

बुद्धिमान ज्ञान पा कर नम्र हो जाता है

जिन वृक्षों पर फल लग जाते हैं, उनकी डालियॉं झुक जाती हैं; इसी प्रकार जिन मनुष्यों में ज्ञान पैदा हो जाता है, वे नम्र हो जाते हैं| Continue reading “बुद्धिमान में नम्रता” »

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अपना दुःख

अपना दुःख

एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं

आत्मा अकेला ही अपना दुःख भोगता है

दुःख अपनी भूल का एक अनिवार्य परिणाम है, जिसे प्रत्येक प्राणी भोगता है| अपना दुःख दूसरा कोई बँटा नहीं सकता| चाहे कोई कितना भी घनिष्ट मित्र हो, रिश्तेदार हो, कुटुम्बी हो- अपने दुःख में वे लोग सहानुभूति प्रकट कर सकते हैं – सेवा कर सकते हैं – सहायता कर सकते हैं, परन्तु हमारा दुःख वे छीन नहीं सकते – भोग नहीं सकते | Continue reading “अपना दुःख” »

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त्यागी कौन नहीं ?

त्यागी कौन नहीं ?

अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइ त्ति वुच्चई

जो पराधीन होने से भोग नहीं कर पाते, उन्हें त्यागी नहीं कहा जा सकता

कल्पना कीजिये – दो व्यक्तियों के पास सौ-सौ रुपये हैं| एक उनमें से पचास रुपयों का दान कर देता है और दूसरे व्यक्ति के पचास रुपये कहीं खो जाते हैं| इस प्रकार दोनों के पास बराबर पचास-पचास रुपये ही बचे रहते हैं; फिर भी हम पहले व्यक्ति को ही त्यागी कहेंगे, दूसरे को नहीं| ऐसा क्यों! Continue reading “त्यागी कौन नहीं ?” »

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त्रास मत दो

त्रास मत दो

न य वि त्तासए परं

किसी भी अन्य जीव को त्रास मत दो

कष्ट ! कितनी बुरी वस्तु है यह| नाम सुनकर भी मन को कष्ट की अनुभूति होने लगती है| कौन है, जो चाहेगा ? कोई नहीं| Continue reading “त्रास मत दो” »

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