एक असंयत आत्मा ही अजित शत्रु है
जिसे हम अपना शत्रु समझते हैं|
ठीक है, लेकिन यदि हम किसीको अपना शत्रु न समझें तो ?
तो सभी हमारे मित्र होंगे|
इसका तात्पर्य यह है कि शत्रु और मित्र वास्तव में कोई किसी का नहीं होता| हमारी सद्भावना या दुर्भावना ही किसी को मित्र या शत्रु मानने के लिए बाध्य करती है|
सद्भावना अनुकूल स्थिति के कारण होती है और दुर्भावना प्रतिकूल स्थिति के कारण| समझदार व्यक्ति प्रतिकूल स्थितियों को भी अनुकूल मानकर संतुष्ट रह सकता है| इसके विपरीत बेसमझ व्यक्ति अनुकूल स्थितियों को भी प्रतिकूल मान कर रोता रह सकता है|
उदाहरण के लिए दो व्यक्ति दूर खड़े-खड़े कानाफूसी कर रहे हों; तो हम यह समझकर दुःखी हो सकते हैं कि वे हमारी निन्दा कर रहे हैं अथवा यह समझकर संतुष्ट हो सकते हैं कि वे हमारी प्रशंसा कर रहे हैं| इस प्रकार हम उन्हें मित्र भी मान सकते हैंऔर शत्रु भी| वास्तव में हमारा मन या हमारी असंयत आत्मा ही अपराजेय शत्रु है|
- उत्तराध्ययन सूत्र 23/38
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