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आस्रव-संवर

आस्रव संवर

समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं|

आस्रव को न जानने वाले संवर को कैसे जान सकते है?

एक विशाल सरोवर की कल्पना कीजिये| उसमें एक नौका तैर रही है| नौका में अनेक यात्री बैठे हैं| धीरे-धीरे नौका डूबने लगती है| नौका में पानी का प्रवेश होने लगता है| यात्री डूबने के डर से चिल्लाते हैं – ‘अरे इस पानी को रोको-जैसे भी बने इस पानी का आना बन्द करो!

अब सोचना यह है कि नौका में जो पानी आ रहा है, वह केवल चिल्लाने से तो बन्द हो नहीं सकता| तब उसे कैसे बन्द किया जायेगा ? स्पष्ट ही पहले यह खोज करनी होगी कि वे छिद्र कौन-कौनसे हैं, जिनसे पानी आ रहा है और उनका पता लगते ही उन्हें बन्द कर दिया जायेगा तब ही पानी का आना रुक सकेगा|

संसार भी ऐसा ही सरोवर है| कर्मजल का आत्मा रूपी नौका मैं ‘आस्रव’ होता है| उसे रोकने की क्रिया को ‘संवर’ कहते है| परन्तु संवर वही कर सकता है; जो आस्रवों को जान लेता है| क्यों कि आस्रव को न जाननेवाला संवर को कैसे जान सकता है?

- सूत्रकृतांग सूत्र 1/1/3/10

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1 Comment

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  1. Beh Kea Chang
    फ़र॰ 14, 2012 #

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