ए खलु कामभोगा, ओ अहमसि
कामभोग अन्य हैं, मैं अन्य हूँ
अधिकांश प्राणी इस सामग्री को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं| प्रयास सफल होने पर अर्थात सामग्री के प्राप्त होने पर उसका उपभोग करते हैं और उससे क्षणिक सुख का अनुभव भी करते हैं; और बस यही क्रम चलता रहता है – जीवनभर|
साधु-सन्त स्थायी सुख पाने का जो आध्यात्मिक मार्ग बताते हैं, उसकी वे उपेक्षा करते हैं| वे भूल जाते हैं कि काम-भोगों का सेवन शरीर इन्द्रियों से ही होता है; परन्तु आत्मा इनसे स्वतंत्र है| वह क्षणिक सुख पाने के लिए नहीं, बल्कि चिरस्थायी या शाश्वत सुख का अनुभव करने के लिए ही है| प्रत्येक मुमुक्षु को ऐसा सोचना चाहिये कि ये काम-भोग अन्य हैं और मैं (आत्मा) अन्य हूँ|
- सूत्रकृतांग सूत्र 2/1/13
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